
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

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अज़्म* रखते हैं जो उड़ानों में।
वो परिंदे हैं आसमानों में।।
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बर्क़* ने सब ठिकाने फूॅंक दिये।
रह गई राख आशियानों में।।
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सीधे-सादे फ़रिश्ता जैसे लोग।
अच्छे लगते हैं दास्तानों में।।
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नाज़ो-अंदाज़ भूल बैठे सब।
अब वो शोख़ी नहीं बहानों में।।
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तेरे आगे सितारे फीके पड़े।
तुझ सा गौहर* नहीं ख़ज़ानों में।।
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कौन-महमिल नशीं*निकलता है।
एक चुप सी है सारबानों* में।।
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कश्तियाँ जल-जला के राख हुईं।
वो लगी आग बादबानों* में।।
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खो चुके हम मुहावरे “अनवर”।
ज़ंग आने लगा ज़ुबानों में।।
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अज़्म*हौसला
बर्क़*बिजली
गौहर*मोती
महमिल-नशीं*ऊॅंट के होदे में बैठने वाला
सारबानों*ऊॅंट चलाने वाले
बादबानों*नाव कश्ती।
शकूर अनवर
9460851271