
-भावेश खासपुरिया-

परिवर्तनशील समय के साथ हमें मनोरंजन के लगभग सभी साधनों और उनकी शैलियों में भी आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिले हैं। वर्तमान समय में ऐसा ही अधोगामी परिवर्तन हमें हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। हास्य और व्यंग्य विधा काका हाथरसी की कुंडलियों और दोहों से लेकर अशोक चक्रधर की हास्य कविताओं तक, शरद जोशी के तीखे व्यंग्यों से लेकर परसाई के चुटीले अंदाज़ तक और मंच पर आसीन शैल चतुर्वेदी और सुरेंद्र शर्मा के हास्य कवि सम्मेलनों तक भी पुस्तकों में और मंचों पर बखूबी फली और फूली है।
बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी की संक्रमण रेखा पर टेलीविज़नों ने जब घर-घर में अपने पाँव जमा लिए थे, तब दूरदर्शन पर प्रसारित जसपाल भट्टी के ‘द फ्लॉप शॉ’ ने भारतीय जनता को खूब गुदगुदाया था। वहीं सितंबर, 2001 में आया हास्य-व्यंग्यात्मक शॉ ऑफिस-ऑफिस ने सरकारी दफ़्तरों में पसरी लेटलतीफ़ी और घूसखोरी की पोल खोलने के साथ ही लोगों को ठहाके लगाने पर मज़बूर कर दिया था। इसी प्रकार हम पाँच, श्रीमान-श्रीमती, तू-तू मैं-मैं और यस बॉस जैसे हास्यात्मक धारावाहिकों ने भी हिंदी भाषी जनता पर अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। बड़े परदे पर यही भूमिका महमूद, जॉनी वॉकर, क़ादर खान, असरानी और जॉनी लीवर जैसे हास्य अभिनेताओं ने श्लाघनीय रूप से निभाई है। चार्ली चैप्लिन और रोवन एटकिंसन (मिस्टर बीन) जैसे विदेशी अदाकारों ने अपनी अदाकारी से यह सिद्ध किया है कि दर्शकों को पेट पकड़ कर हँसाने के लिए आपको अश्लील और भद्दी टिप्पणियों की आवश्यकता तो दूर, वरन् शब्दों की आवश्यकता नहीं होती है।
लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, वैसे-वैसे शुद्ध और स्वच्छ हास्य में पहले कुछ अपशब्दों को तथा धीरे-धीरे अश्लीलता को भी अल्पमात्रा में मिलाया जाने लगा, और लगभग दो दशक से अधिक समय के बाद आज स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि आज हास्य के रंग में हास्य से अधिक जगह अश्लीलता और भद्दी टिप्पणियों के साथ अपशब्दों ने घेर ली है। वर्तमान समय में राष्ट्रीय टेलीविज़न और सोशल मीडिया पर प्रसारित अधिकतर तथाकथित कॉमेडी शॉज़ को माता-पिता, परिवार और बच्चों के साथ देखे जाने में आम जनता को हिचक और असहजता महसूस होने लगी है।
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर चलने वाली अधिकतर वेब सीरीज़ें और फ़िल्मों में हास्य के रंग बिखेरने के लिए जहाँ डबल मीनिंग बातों का सहारा लिया जाता है, वहीं यही फिल्में और वेब सीरीज़ें माँ और बहन की भद्दी गालियों से पटी पड़ी होती हैं। क्या कारण है कि आज के समय में हमारा ह्यूमर बिना अश्लील और फूहड़ टिप्पणियों का सहारा लिए आगे प्रॉसेस ही नहीं कर पाता है? हमारे लिए हास्य का अर्थ दूसरों को सभी के समक्ष ज़लील करने तक ही क्यों सीमित कर दिया गया है?
समाज में इस ज़हर को बोने के लिए जितने इन शॉज़ के निर्माता उत्तरदायी हैं, उतने ही ताली पीट-पीट कर इनकी हौसला-अफ़ज़ाई करने वाले इनके दर्शक भी। यह बात समझने योग्य है कि निर्माता के लिए निर्माण करना एक व्यवसाय है, वह वैसे ही कंटेंट का निर्माण करेंगे, जैसे कंटेंट की माँग दर्शकों के बड़े तबके द्वारा की जाएगी।
आज के अधिकतर सो कॉल्ड स्टैंडअप कॉमेडियन मंच पर अपनी प्रस्तुति किसी अश्लील टिप्पणी, भद्दी गाली और डबल मीनिंग बातों के बिना नहीं दे पाते हैं। डार्क कॉमेडी का चोला ओढ़कर निम्न से निम्नतर विचार और बात को सभ्य समाज में नॉर्मलाइज़ कर देने का प्रयास जैसे वर्तमान हास्य शैली का चलन बन गया है। इन सो कॉल्ड कॉमेडियन्स के अनुसार यदि आप ऐसी फूहड़ टिप्पणियों पर ठहाका लगाकार हँस नहीं पड़ते हैं, तो आप या तो रूढ़िवादी हैं, या उनकी हास्य की अत्याधुनिक परिभाषा में फिट नहीं बैठते हैं।
हाल ही में यूट्यूब के एक पॉडकास्टर द्वारा ऐसे ही एक शॉ पर माता-पिता के निजी संबंधों पर की गई भद्दी टिप्पणी से भारतीय सभ्य समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग बुरी तरह आहत हुआ है। माता-पुत्र, पिता-पुत्री जैसे रिश्तों की भारतीय संस्कृति में स्थापित पवित्रता को ताक पर रखकर डार्क कॉमेडी के नाम पर समाज में अपनी विकृत मानसिकता की गंदगी फैलाने का कार्य कहाँ तक उचित और सहनीय है? हम कब तक किसी की दुखती रग पर उँगली रखकर, किसी की कमजोरियों को भीड़ के समक्ष गिनवा कर या किसी की शारीरिक बनावट और उसके रूप-रंग पर भद्दी टिप्पणी कर उसको हास्य और रोस्टिंग का नाम देते रहेंगे? यह प्रश्न आज के समाज के समक्ष एक ज्वलंत विषय बन कर खड़ा हुआ है।
इस प्रश्न से अधिक चिंतनीय यह विषय भी है कि आज की टीन एज़ पीढ़ी ऐसे वीभत्स कंटेंट और भाषा शैली की ओर सर्वाधिक आकर्षित होती है। और मिथ्या परिपक्वता के कारण ऐसे कंटेंट क्रियेटर्स को अपना हीरो और आदर्श भी मान बैठती है। हम इस आने वाली पीढ़ी के लिए भविष्य के समाज की रूपरेखा को किस प्रकार तैयार करना चाहते हैं, यह चिंता का मूल विषय है। क्या ऐसे लोगों से बना समाज कभी सभ्य कहला सकता है, जिस समाज के लोग सिर्फ़ अपने हास-परिहास के लिए बात-बात में छिछली गालियाँ देते हों या किसी के माता-पिता के जीवन के निजी क्षणों का उपहास करते हों?
यह सत्य है कि गालियाँ समाज और साहित्य का हिस्सा रही हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखक काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में भी अपशब्दों का उपयोग किया गया है। लेकिन यह गालियाँ उपन्यासकार द्वारा इस उपन्यास में एक अँचल विशेष की विशेषता बताने के लिए लाई गयी हैं, न कि स्वयं को अत्याधुनिक प्रमाणित करने के उद्देश्य से। यह समझना होगा कि गालियाँ समाज और साहित्य का एक छोटा सा हिस्सा मात्र ही हैं, वह संपूर्ण समाज और साहित्य नहीं है। अत्याधुनिक कहलाने या दिखने के लिए क्या व्यक्ति की हर निजी बात, भावना या कृत्य को भीड़ के समक्ष उघाड़ कर रख देना ही आवश्यक है?
हास्य के आवरण में लपेटकर परोसी जाने वाली फूहड़ता और अश्लीलता रूपी कूड़े को कभी भी एक सभ्य समाज में स्वीकार्य योग्य नहीं माना जाना चाहिए। समय रहते कॉमेडी शॉज़, फिल्मों, और वेब सीरीज़ों में व्यापक रूप से जगह बना चुकी फूहड़ता, अश्लीलता, भद्दी टिप्पणियों और गंदी गालियों के उपयोग के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींची जानी आवश्यक है।
लेकिन प्रश्न आता है कि यह सीमा रेखा किसके द्वारा खींची जाएगी? क्या किसी सरकार को इस पर कोई कानून बनाना चाहिए? यदि बना भी दिया जाए, तो क्या इन कतिपय लंपटों के कारण शेष सभी अच्छे कलाकारों के साथ अन्याय न होगा? शायद हो, इसलिए आपको चाहिए कि आप ऐसे लंपटों की तीखी से तीखी आलोचना करें और ऐसे फूहड़ और घृणित कंटेंट के निर्माताओं कों चाहिए कि वह मृतप्राय स्वविवेक का उपयोग कर हास्य और फूहड़ता में अंतर को समझने का प्रयास करें।
यह सत्य है कि नग्नता बाज़ार में अधिक तेजी से बिकती है, लेकिन सस्ती प्रसिद्धि प्राप्त करने और धनोपार्जन की अंधी दौड़ में आपको यह नहीं भूल जाना चाहिए कि विकसित कहलाने में यदि आप अपने नैतिक मूल्यों के पतन की ओर गतिशील हैं, तो यह आपका और आपके समाज का उत्थान नहीं है। ध्यान रखें कि जो नग्नता आप समाज को आज परोस रहे हैं, उसी फूहड़ता और नग्नता का सेवन कल इसी समाज में श्वास लेने वाली आपकी आगामी पीढ़ी भी करेगी, हो सकता है आप से अधिक मात्रा में।
©भावेश खासपुरिया
कोटा ( राज.)
संपर्क – 9001062053

















