
-सुनील कुमार Sunil Kumar
आज एक खबर है कि इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट (आईएससी) इम्तिहान में अव्वल नंबर पर आने वाली छात्रा, कोलकाता की सृजनी ने अपना सरनेम छोड़ दिया है, और अपने धर्म के कॉलम में भी मानवीयता लिखा है। इस 17 बरस की छात्रा ने पांडिचेरी के अरविंद आश्रम से जुड़ी स्कूल में पढ़ाई करते हुए इस बोर्ड में पहला नंबर पाया था, और शायद श्री अरविंद आश्रम के दर्शन से प्रभावित होकर उसने ऐसा फैसला लिया होगा। जो भी हो, आज के वक्त जब चारों तरफ धर्म और जाति के नाम पर कट्टरता का बोलबाला है, तब एक किशोरी का ऐसा फैसला मामूली नहीं है। उसने आगे की पढ़ाई और इम्तिहान के लिए जातिसूचक उपनाम और धर्म लिखने से छूट मांगी है। स्कूल के प्राचार्य ने भी कहा है कि इसमें कोई दिक्कत नहीं है, जैसा भी परिवार चाहता है, वैसे नाम का इस्तेमाल कर सकता है। इस छात्रा ने कहा कि वह किसी भी तरह की असमानता के खिलाफ है, चाहे वह सामाजिक हो, आर्थिक हो, या धार्मिक हो। उसका कहना है कि साम्प्रदायिक आक्रामकता और धार्मिक कट्टरता विभाजनकारी ताकतें हैं। उसका कहना है कि एक बहुसंस्कृति समाज में सहनशीलता, आपसी सम्मान के साथ ही विकास हो सकता है। उसने अपने परिवार के साथ पिछले बरस कोलकाता में एक डॉक्टर से बलात्कार और उसकी हत्या के खिलाफ आयोजित प्रदर्शन में भी हिस्सा लिया था। परिवार का माहौल यह है कि अलग-अलग सदस्य अपनी मर्जी से नाम या उपनाम इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं। बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र के आवेदन में सरनेम का उपयोग नहीं किया गया था, और परिवार का कहना है कि उन्हें पासपोर्ट बनवाने तक में इसको लेकर कोई दिक्कत नहीं हुई। सरनेम छोड़ देने को लेकर कोलकाता में इसी परिवार के इलाके में रहने वाले बंगाल के एक मंत्री उन्हें बधाई देने भी पहुंचे। केरल में भी कुछ बरस पहले ऐसा हो चुका है कि एक छात्रा ने बिना धर्म और जाति के अपना सर्टिफिकेट बनवाया था। और वहां पर बढ़ती हुई जागरूकता का एक नतीजा यह है कि 2017-18 में केरल में स्कूली दाखिले का फॉर्म भरते हुए सवा लाख छात्र-छात्राओं ने धर्म या जाति के कॉलम खाली छोड़ दिए थे। ये बच्चे पहली से दसवीं के बीच के थे, और यह जानकारी वहां के शिक्षामंत्री ने विधानसभा में दी थी। इनमें से अधिकतर ने जाति नहीं लिखी थी, और बहुतों ने धर्म भी नहीं लिखा था। केरल में एक छात्रा ने धर्म और जातिविहीन होने का सर्टिफिकेट भी बनवाया था, और वह देश की ऐसी पहली छात्रा बनी थी।
भारत में अभी दो दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने इस बार की जनगणना में जाति का कॉलम भी जोड़ा है, और लोगों से पूछा जाएगा कि उनकी जाति क्या है। ढाई दर्जन से अधिक सवालों में से लोग जिसका जवाब देना नहीं चाहेंगे, वह कॉलम खाली रह जाएगा, और हो सकता है कि जनगणना के बाद भी कुछ लाख लोग ऐसे मिलें जिन्होंने जाति नहीं बताई। लेकिन आज देश में जाति की हकीकत को समझने की जरूरत है। जिन लोगों को यह लगता है कि भारत में जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, और किसी राजनीति या संकीर्ण-एजेंडा के तहत जाति का मुद्दा उठाया जाता है, उन लोगों के ऊंची समझी जाने वाली जाति के होने की संभावना अधिक है। जो लोग समाज में नीची समझी जाने वाली जातियों से आते हैं, वे कुचले लोग रहते हैं, और वे जाति व्यवस्था की तकलीफ को बेहतर समझते हैं। देश में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां दलितों को आज तरह-तरह की प्रताडऩा झेलने मिलती है। कहीं वे स्कूल में किसी सवर्ण का पानी का घड़ा छू लेने पर मार खाते हैं, तो कहीं कोई दलित दूल्हा अपनी बारात में घोड़ी पर चढऩे के लिए पिटता है। जगह-जगह दलितों के अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में तनाव होता है। हिन्दीभाषी राज्यों में ऐसी कई घटनाएं हैं जिनमें दलितों के साथ की जा रही हिंसा हक्का-बक्का करती है कि क्या यह देश आजादी की पौन सदी पूरी कर रहा है, और उसके बाद भी यहां दलितों के कानूनी हक का यह हाल है। दलितों, और सवर्ण दबंगों के बीच का टकराव बड़ा हिंसक रहता है, और उसे अनदेखा करने से देश की कड़वी हकीकत नहीं बदल जाती।
धर्म और जाति की पहचान कोई कलंक नहीं रहनी चाहिए। लोगों को यह आजादी रहनी चाहिए कि वे अपने धार्मिक प्रतीक चिन्ह पहन सकें, अपनी उपासना पद्धति पर चल सकें, कानून में जैसे खानपान की इजाजत है, वैसी आजादी इस्तेमाल कर सकें। लेकिन भारत में आज ऐसा करने पर बहुत से लोग हिंसा का शिकार हो सकते हैं, हो रहे हैं। किसी की धार्मिक पहचान उसकी भीड़त्या करवा सकती है, और किसी की जाति की पहचान उसे और लोगों के बीच अछूत बना सकती है। बराबरी के कानून धरे रह जाते हैं, जब जातिवादी हिंसा लोगों के सिर चढक़र बोलती है। इसलिए जाति व्यवस्था की क्रूरता को कम नहीं आंकना चाहिए, और अगर कोई लडक़ी जातिसूचक नाम को सोच-समझकर छोड़ रही है, धर्म के कॉलम को खाली छोड़ रही है, तो वह औरों के सामने एक मिसाल भी हो सकती है।
देश के कुछ राज्यों में समाजवादी विचारधारा के लोगों में जातिसूचक उपनाम का इस्तेमाल बंद किया था, लेकिन यह काम बड़े पैमाने पर नहीं हो पाया। फिर दूसरी तरफ कुछ जगहों पर प्रताडि़त दलित समाज ने सवर्ण-ब्राम्हण वर्ग के ही जातिसूचक उपनामों का इस्तेमाल शुरू कर दिया, और ऐसे प्रदेशों में छत्तीसगढ़ भी शामिल है। यह जाति व्यवस्था को एक अलग किस्म की चुनौती है, और अभी हम इसके गुण-दोष पर नहीं जा रहे हैं। कानून ऐसी इजाजत देता है, और छत्तीसगढ़ में इसका व्यापक इस्तेमाल भी हो रहा है। आज देश में दलित और आदिवासी समाज के लोगों को आरक्षण का फायदा मिलते देख सवर्ण तबका उन्हें सरकारी दामाद कहते आया है, लेकिन अभी ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद भी अभी ओबीसी के लिए ऐसा अपमानजनक लेबल इस्तेमाल नहीं होता है। दलितों और आदिवासियों के खिलाफ बड़ी पुरानी चली आ रही सवर्ण-हिकारत कुछ अधिक हिंसक और सक्रिय है।
एक छात्रा के जातिसूचक या धर्मसूचक नाम छोड़ देने से समाज व्यवस्था नहीं बदलती, लेकिन देश के और बच्चे और बड़े लोग इस बारे में सोच जरूर सकते हैं। वैसे तो अगर कोई लोकतंत्र एक सहनशील समाज विकसित करता है, तो उसमें धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग भी सुरक्षित रह सकते हैं, लेकिन हमने पश्चिम के बड़े विकसित देशों को भी देखा है कि वहां भी धार्मिक प्रतीक लोगों को खतरे में डालते हैं, और इस हद तक कि मुस्लिमों के प्रति हिकारत सिक्खों तक चली आती है जिन्हें पगड़ी की वजह से कहीं-कहीं पर मुस्लिम मान लिया जाता है। भारत जैसे समाज को यह सोचना चाहिए कि धर्म और जाति को लेकर आज समाज में जो नौबत है, उसके चलते हुए क्या फेरबदल और सुधार होना चाहिए?
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)