
-देशबन्धु में संपादकीय
पाकिस्तान के अलगाववादी संगठन बलूच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) ने मंगलवार को जाफ़र एक्सप्रेस का अपहरण कर संकेत दिया कि बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने की मांग खत्म नहीं हुई है। बलूचिस्तान के क्वेटा से सुबह 9 बजे यह ट्रेन पेशावर के लिये निकली थी। दोपहर 1.30 बजे सिब्बी पहुंचने वाली इस ट्रेन को उसके पहले पहाड़ी रास्तों से गुजरना होता है जहां 17 सुरंगें पड़ती हैं। बताया गया कि इसमें लगभग 5 सौ यात्री सवार थे जिनमें सौ से ज़्यादा पाक सेना के जवान थे। इसलिये इस ट्रेन के अपहरण और हमले की योजना बनाई गई। पहले भी इस ट्रेन पर हमले हो चुके हैं। इस बार बोलान की माशफ़ाक सुरंग में अलगाववादियों ने इसे कब्जे में ले लिया।
अपहरणकर्ताओं की मांग थी कि पाकिस्तान की जेलों में बन्द सभी बलोच नेताओं को छोड़ा जाये। वैसे तो उन्होंने महिलाओं, बच्चों और बलूचियों को मुक्त कर दिया लेकिन सैनिकों को क़ब्ज़े में रखा हुआ है।
इस घटनाक्रम को समझने के लिये इतिहास में उतरना होगा। जब से भारत को आज़ादी मिली तभी से बलूचियों की यह मांग रही है कि उन्हें पाकिस्तान से अलग होना है। बलूचियों का मानना रहा है कि अंग्रेजी शासनकाल के पहले से ही उसका स्वतंत्र अस्तित्व रहा है लेकिन जब भारत को आज़ादी मिली तथा उसे दो मुल्कों में बांट दिया गया तब ग़लत तरीके से बलूचिस्तान को पाकिस्तान में मिलाय़ा गया। तथ्यात्मक रूप से यह सही भी है। आरम्भिक वर्षों में तो इसकी शांतिपूर्ण तरीके से मांग होती रही लेकिन पाकिस्तान सरकार के दमन से मामला बिगड़ गया। प्रशासन में पंजाब को मिलते महत्व से बलूचिस्तान की वैसी ही उपेक्षा हुई जिस प्रकार सिंध की होती है तथा कभी उसके पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले वर्तमान बांग्लादेश की हुई थी। देश के भूगोल में इस प्रांत की 44 फीसदी की हिस्सेदारी है। ईरान, अफगानिस्तान तथा अरब सागर से घिरा यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है लेकिन उसका लाभ यहां के लोगों को बहुत कम मिलता है। पंजाब प्रांत के कारोबारियों का इस पर वर्चस्व है। गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि के अलावा यहां के लोगों को बुनियादी सुविधाओं का बेहद अभाव है। बलूचियों व पश्तूनों वाले इस क्षेत्र की पहचान तथा संस्कृति को मिटाने के आरोप भी पाकिस्तानी सरकार पर लगते रहे हैं- फिर वह चाहे किसी की भी रही हो।
1971 में जब बांग्लादेश की अवाम ने सशस्त्र विद्रोह कर पाकिस्तान से मुक्ति पाई थी, तब यहां भी बलूचिस्तान को स्वतंत्र करने के लिये कई राष्ट्रवादी संगठन बने जिनमें से कुछ ने हथियारबन्द विद्रोह का रास्ता अपनाया। इनमें से कुछ का अस्तित्व पहले से था लेकिन उन सभी को बांग्लादेश की घटना से प्रेरणा एवं उत्साह मिला था। बांग्लादेश के घटनाक्रम से कोई सबक न लेकर पाक सरकार ने पूर्ववत रवैया जारी रखा। उस दौरान जब राष्ट्रवादी संगठनों की हलचलें तेज़ हुईं तो पाकिस्तानी सेना द्वारा ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ चलाकर हजारों बलूचियों को या तो गिरफ़्तार किया गया या मार डाला गया। कई नौजवान लापता हो गये जिनके बारे में कहा जाता है कि वह सेना की ही करतूत थी। बीएलए के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक तथा बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री अकबर खान बुगती की हत्या में पाक सेना का हाथ बतलाया जाता है। सेना की मदद से उनके स्थान पर नवाब खैर बख्श के बेटे बालाच मिरी को प्रांत का सीएम बनाया गया और बाद में उनकी भी हत्या करवाने का आरोप सेना पर लगता रहा है।
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के शासनकाल में पाकिस्तान सरकार के खिलाफ बलोचों ने सशस्त्र विद्रोह किया था। अनेक शासकीय संस्थानों पर उन्होंने हमले किये थे। भुट्टो का तख़्तापलट होने के बाद आये सैन्य तानाशाह ज़िया उल हक ने उन नेताओं से बातचीत कर उन्हें आश्वासन दिया था कि वे सुनिश्चित करेंगे कि बलूचिस्तान के साथ अन्याय न हो। इसके बाद अलगाववादियों की कार्रवाइयों में कमी आई तथा बीएलए भी शांत हो गयी। चूंकि पाकिस्तान सरकार का रवैया पूर्ववत जारी रहा इसके कारण साल 2000 से अनेक संगठनों की सक्रियता बढ़ी, जिनमें बीएलए भी शामिल है। मैरी और बुगती जनजातियों के लड़ाकों द्वारा चलाये जा रहे इस आंदोलन के बारे में माना जाता है कि वे बलूचिस्तान को विदेशी शक्तियों, खासकर चीन के प्रभाव से मुक्त करना चाहते हैं और यह तभी सम्भव है जब वह पाकिस्तान से पृथक हो।
वैसे तो यह पूरी तरह से पाकिस्तान का अंदरूनी मामला है लेकिन वहां की सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि बलोच नागरिकों के साथ न तो कोई भेदभाव हो और न ही दमन। उस इलाके में उपलब्ध संसाधनों तथा अवसरों पर उनका भी हक़ हो। एक अलग मुल्क बनने के वक़्त से ही पाकिस्तान के ज्यादातर गैर-पंजाबी सूबों की शिकायत रही है कि उनके साथ नाइंसाफ़ी होती है। ट्रेन अपहरण भी उसी का परिणाम है। हालांकि हिंसा का रास्ता छोड़ लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर अपनी बात मनवाने की कोशिश ही किसी भी समस्या को सुलझाने का बेहतर तरीका होता है। अपहरण जैसी घटनाओं से निर्दोषों पर जुल्म होता है, और दमनकारी शक्तियों को शिकंजा कसने का और बहाना मिल जाता है।