
-राजेन्द्र गुप्ता
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हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस साल यह 29 अप्रैल को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार तृतीया तिथि 29 अप्रैल को सायं 5 बजकर 31 मिनट पर शुरू होगी और 30 अप्रैल को दोपहर 02 बजकर 12 मिनट पर समाप्त होगी। भगवान परशुराम का अवतार प्रदोष काल में हुआ है, इसलिए 29 अप्रैल को प्रदोष काल में भगवान परशुराम जन्मोत्सव मनाया जाएगा। अक्षय तृतीया का पर्व उदया तिथि में 30 अप्रैल को मनाया जाएगा।
भगवान परशुराम ने दिया एकता का सूत्र
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भगवान परशुराम ने एकता का सूत्र संसार को दिया है। सभी जाति और समाजों में समरसता का संदेश दिया है।भारतीय वाङमय में सबसे दीर्घ जीवी चरित्र परशुराम जी का है। सतयुग के समापन से कलयुग के प्रारंभ तक उनका उल्लेख मिलता है। भगवान परशुराम जी के जन्म समय को सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।
भारतीय इतिहास में इतना दीर्घजीवी चरित्र किसी का नहीं है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके चरित्र की विशेषता है। उनका चरित्र अक्षय है, इसलिए उनकी जन्म तिथि वैशाख शुक्ल तृतीया को माना गया।
इस दिन का प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण शुभ मुहूर्त माना जाता है। विवाह के लिए या अन्य किसी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया के दिन अलग से मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। उनके जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा है।
मानव जीवन को व्यवस्थित ढांचे में ढाला
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भगवान परशुराम ने मानव जीवन को व्यवस्थित ढांचे में ढालने का महत्वपूर्ण कार्य किया। दक्षिण के क्षेत्र में जाकर वहां कमजोर समाज को एकत्रित कर समुद्र तटों को रहने योग्य बनाया। अगस्त ऋषि से समुद्र से पानी निकालने की विद्या सीख कर समुद्र के किनारों को रहने योग्य बनाया। एक बंदरगाह बनाने का भी प्रमाण परशुराम जी का मिलता है। वही परशुराम जी ने कैलाश मानसरोवर पहुंचकर स्थानीय लोगों के सहयोग से पर्वत का सीना काटकर ब्रह्म कुंड से पानी की धारा को नीचे लाये जो ब्रह्मपुत्र नदी कहलायी।
भगवान परशुराम समतावादी समाज का निर्माण करने वाले थे। भले ही उन्हें ब्राह्मणों का हितैषी और क्षत्रियों का विरोधी माना जाता रहा है। यह परशुराम जी को बेहद संकुचित आधार पर देखने की दृष्टि है। हम महापुरुषों को उनकी जाति के आधार पर देखते हैं। पर सच यह है कि उन्होंने क्षत्रियों को इसलिए पराजित नहीं किया कि वह क्षत्रिय थे या ब्राह्मण नहीं थे। उन्होंने क्षत्रिय समाज के उन अहंकारी राजाओं को परास्त किया जो समाज रक्षण का मूल धर्म भूल गए थे। क्षत्रियों पर उनके क्रोध के पीछे का कारण को समझने से पता चलता है कि उस समय क्षत्रियों के अत्याचार और अन्याय इतने बढ़ गए थे कि उन्होंने क्षत्रियों को सबक सिखाने का प्रण किया। दूसरा अपने मौसा जी सहस्त्रबाहु द्वारा अपने पिता के आश्रम पर आक्रमण और पिता की हत्या ने भी परशुराम के क्रोध को भड़का दिया।
भृगु वंश
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परशुराम भृगु वंशी थे। यह वही भृगु वंश है, जिसमें भृगु ऋषि ने अग्नि का आविष्कार किया था। श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय में भगवान ने कहा-
“मैं ऋषियों में भृगु हूं”!
महर्षि भृगु को संसार का पहला प्रचेता लिखा गया है। विष्णु पुराण के अनुसार नारायण को ब्याहीं श्री लक्ष्मी महर्षि भृगु की ही बेटी थीं। समुद्र मंथन से उत्पन्न लक्ष्मी तो उनकी आभा थी। भृगु वंश में ही महर्षि मार्कण्डेय, शुक्राचार्य, ऋचीक, विधाता, दधीचि, त्रिशिरा, जमदग्नि, च्यवन और नारायण का ओजस्वी अवतार भगवान परशुराम जी का जन्म हुआ।
महर्षि भृगु को अंतरिक्ष, चिकित्सा और नीति का जनक माना जाता है। अंतरिक्ष के ग्रहों और तारागणों की गणना का पहला शास्त्र भृगु संहिता है। वामन अवतार के बाद परशुराम का अवतार हुआ। वामन अवतार जहां जीव के जैविक विकास क्रम का लघु रूप था। वहीं परशुराम मानव जीवन के विकास क्रम के संपूर्णता के प्रतीक थे।
ब्राह्मण समाज में भी उन्होंने सत्ता दी जो संस्कारी थे, सदाचारी थे। वही यदि कोई ब्राह्मण संस्कार विहीन है तो उसे भी पदावनत किया। साथ ही अगर कोई संस्कारवान है तो उसे ब्राह्मणों की श्रेणी में रखने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाए रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल और समूची प्रकृति के लिए जीवित रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना।
कलिकाल के अंत में होंगे उपस्थित
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परशुराम जी का यह उदाहरण समरस समाज के निर्माण में उनके योगदान को दर्शाता है, जिसकी आज चर्चा होनी चाहिए। भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं और वे चिरंजीवी हैं। उन्हें श्रीराम के काल में भी देखा गया और श्रीकृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था।
राजेन्द्र गुप्ता,
ज्योतिषी और हस्तरेखाविद
मो. 9116089175
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