नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सफलता

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प्रतीकात्मक फोटो

#सर्वमित्रा_सुरजन

21 मई का दिन छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ छेड़े गए अभियान में काफी खास बन गया है। सुरक्षा बलों ने एक सुनियोजित अभियान चलाकर 27 नक्सलियों को मार गिराया है। मरने वालों में ईनामी नक्सली सीपीआईएम महासचिव नंबाला केशव राव उफ़र् बसवराजू का नाम भी शामिल है। बसवराजू का नाम कई बड़ी हिंसक घटनाओं से जुड़ा रहा है। 2010 में दंतेवाड़ा 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत, 2013 का झीरम घाटी हमला, जिसमें कांग्रेस की पहली पंक्ति के तमाम नेता मारे गए थे, 2019 का गढ़ चिरौली हमला जिसमें 15 क्यूआरटी जवान मारे गए थे, ऐसी कई और घटनाओं की योजना बसवराजू ने ही बनाई थी, ऐसा दावा है। कई छद्म नामों से भूमिगत रहते हुए नक्सल कार्रवाइयों को अंजाम देने वाले बसवराजू ने बीटेक की पढ़ाई की थी, लेकिन कॉलेज में रहते हुए ही उग्र वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर नंबाला केशव राव ने अपनी राह अलग बना ली। बसवराजू को मारना सुरक्षा बलों की बड़ी सफलता बताई जा रही है, क्योंकि इसके बाद नक्सल संगठन कमजोर पड़ेगा यह दावा सरकार और पुलिस प्रशासन का है।
बुधवार को नक्सल आंदोलन के खिलाफ इस बड़ी सफलता पर भाजपा की राज्य और केंद्र सरकार दोनों अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। इसे डबल इंजन सरकार की बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है। वैसे भी अमित शाह ने 2019 में ही नक्सलवाद को खत्म करने का लक्ष्य रखा था। अब सरकार मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह से खत्म करने की योजना बना रही है। छत्तीसगढ़ में मिली हालिया सफलता पर अमित शाह ने ट्वीट किया कि , ‘नक्सलवाद के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई के तीन दशकों में ऐसा पहली बार है कि हमारे बलों ने एक महासचिव स्तर के नेता को मारा है. मैं इस बड़ी सफलता के लिए हमारे बहादुर सुरक्षा बलों और एजेंसियों की सराहना करता हूं।’ अमित शाह ने यह भी बताया कि ऑपरेशन ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ के पूरा होने के बाद, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में 54 नक्सलियों को गिरफ़्तार किया गया है और 84 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। वहीं सत्तारूढ़ भाजपा भी काफी गदगद है। कांग्रेस ने भी इस सफल अभियान के लिए खुशी जाहिर की है, मगर इस कामयाबी पर अपना हिस्से का दावा भी ठोंक दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि मैं इस बड़ी सफलता के लिए सभी जवानों को बधाई देता हूं.. जब हम सरकार में थे तब 600 गांवों को नक्सल मुक्त बनाया गया था। हमने लोगों में विश्वास पैदा किया और उन्हें भूमि अधिकार दिए, उनके कज़र् माफ़ किए और यहां तक कि उन्हें उनकी ज़मीनें भी वापस दिलाई। अभी जो ऑपरेशन चल रहे हैं, वे बचे हुए इलाक़ों में हैं।’
जाहिर है इतनी बड़ी सफलता पर श्रेय लेने की होड़ तो रहेगी ही, क्योंकि अविभाजित मध्यप्रदेश के जमाने से छत्तीसगढ़ नक्सलवाद के चंगुल में रहा। भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें दोनों राज्यों में रहीं, दोनों दलों की सरकारों ने अपने-अपने शासनकाल में नक्सलवाद के खिलाफ अभियान चलाए और दोनों पर ही नक्सलियों के खात्मे की आड़ में मासूमों को निशाने पर लेने के आरोप भी लगे। अब भाजपा का पलड़ा केंद्र सरकार के सहयोग की वजह से अधिक भारी हो गया है, क्योंकि केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार पूरे समन्वय से काम कर रही हैं। ऐसे में यह तथ्य अपने आप उभरता है कि नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्या को हल करने में राजनैतिक स्वार्थ आड़े आ जाते हैं।
बहरहाल, ऑपरेशन ब्लैक फारेस्ट के बाद अब दावा किया जा रहा है कि तिरुपति से पशुपति तक फैला लाल गलियारा अब बंद होने की कगार पर है। माओवाद की कमर टूट चुकी है। माओवादी अब वार्ता करना चाहते हैं, लेकिन सरकार उन्हें हथियार रखने पर मजबूर कर चुकी है, लिहाजा वे बेबस हैं। बसवराजू के बाद माओवादियों के पास अब कोई बड़ा नेतृत्व नहीं बचा जो युद्ध की रणनीतियां बनाएं और बड़े अभियानों को लागू करवाए। ऐसे तमाम दावों से तस्वीर यही बन रही है कि नक्सलवाद अब खत्म होने को ही है और केन्द्रीय गृहमंत्री का जो दावा है कि मार्च 26 तक यह काम पूरा जाएगा, वह भी सही साबित होगा।
इन दावों को करने का यही वक्त भी है, लेकिन इन्हीं के साथ कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलियों के बड़े नामों को खत्म करने के बाद भी क्या उन कारणों को खत्म किया जा सका है, जिनसे नक्सल आंदोलन शुरु हुआ था। पाठक जानते हैं कि 60 के दशक के अंतिम बरसों में प.बंगाल में नक्सलबाड़ी गांव से इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी क्योंकि पूंजीवाद से निकला शोषण और अन्याय गरीब किसानों और मजदूरों की जिंदगी को अपनी चपेट में ले चुका था। अपने हक के लिए उठाई गई आवाज़ हिंसक कार्रवाइयों में लिप्त हुई और धीरे-धीरे नक्सलवाद का दायरा इतना बढ़ गया कि भारत का एक बड़ा हिस्सा इसकी गिरफ्त में आया। पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उन्होंने भी ऑपरेशन ग्रीन हंट के तहत सभी नक्सल प्रभावित राज्यों की एकीकृत लड़ाई नक्सलवाद के खिलाफ शुरु की थी। वर्ना 2007-08 के पहले बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे सारे राज्य अपने-अपने अभियान नक्सलवाद के खिलाफ चलाते थे। इस ऑपरेशन में सुरक्षा बलों ने माओवादियों के गढ़ में घुसना शुरु कर दिया था, तभी से माओवादी बैकफुुुट पर जा रहे थे। लेकिन बीच-बीच में कुछ बड़ी घटनाओं को अंजाम देकर उन्होंने अपना आतंक बनाए रखने की कोशिश की। इसलिए अभी यह कहना शायद जल्दबाजी होगी कि माओवाद की कमर टूट गई है। क्योंकि जब तक समाज में अन्याय और शोषण के कारण बने रहेंगे, तब तक नक्सलवाद को भी सिर उठाने का बहाना मिलता रहेगा।
नक्सलवादियों ने छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र ऐसे तमाम राज्यों में घने जंगलों में अपने ठिकाने बनाए हैं और इन जंगलों के नीचे अकूत प्राकृतिक संपदा है। इस संपदा पर उद्योगपतियों की गिद्धदृष्टि बनी हुई है, जबकि इन जंगलों में रहने वाले लोग तरह-तरह से शोषित और प्रताड़ित हो रहे हैं। क्या भाजपा सरकार इस बड़ी सफलता के मौके पर यह बात भी दम से कह सकती है कि आदिवासियों के हुकूक और प्राकृतिक संपदा पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे। ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट में नक्सलियों के पास से बड़ी संख्या में अत्याधुनिक हथियार, कई महीनों का राशन और कई अन्य संसाधन भी बरामद हुए हैं। इतना सब उनके पास घने जंगल के भीतर कैसे पहुंचा, क्या सरकार के पास इसका जवाब है। इतनी बड़ी कामयाबी को भुनाने के मौके भाजपा के पास बने रहेंगे, पहले उसकी कोशिश यही होनी चाहिए कि नक्सलवाद पनपने के कारण खत्म करे।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल् से साभार)

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