लोकतंत्र बचाने के लिए ईवीएम विरोधी आंदोलन

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#सर्वमित्रा_सुरजन

कांग्रेस ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन द्वारा मतदान कराये जाने के खिलाफ़ एक बड़ा आंदोलन करने का फैसला लिया है, जो पारदर्शी एवं निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया के लिये बेहद ज़रूरी हो गया है। पिछले कुछ समय से राजनीतिक दलों के अलावा अनेक लोगों और स्वयंसेवी संगठनों ने इसके खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है परन्तु भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े हितरक्षक बने केन्द्रीय चुनाव आयोग ने इस सम्बन्ध में उठने वाली हर मांग को अनसुना किया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस विषय पर भाजपा का ही साथ दिया है जो एक तरह से जनता के विचारों की अनदेखी करना कहा जा सकता है।
शुक्रवार को दिल्ली में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में फैसला लिया गया कि 26 दिसम्बर को कर्नाटक के बेलगाम से इस आंदोलन की शुरुआत होगी। इस दिन महात्मा गांधी के उसी शहर में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करने के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं, जिसने देश की तकदीर को पलटकर रख दिया था। कर्नाटक सरकार उस घटना को बड़े पैमाने पर मनाने जा रही है। ईवीएम के खिलाफ प्रस्तावित आंदोलन को उसी शहर से प्रारम्भ करना गांधीजी द्वारा स्वतंत्रता के लिये किये गये संघर्ष को नये सिरे से याद करना और एक बड़ी हालिया ज़रूरत को पूरा करने की दिशा में लड़ाई छेड़ना है। कोई पूछ सकता है कि क्या ईवीएम इतना बड़ा मुद्दा है कि उसके खिलाफ ऐसा बड़ा कदम उठाया जाये?
हाल के सियासी घटनाक्रमों को देखें तो कहा जा सकता है कि यह इस वक्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है। देश जिन दुश्वारियों से गुजर रहा है उसका प्रमुख कारण ईवीएम के जरिये होने वाले चुनाव हैं जो पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में नियोजित हो रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ताकत प्रदान कर रहे हैं। ईवीएम पर सम्पूर्ण आधिपत्य चुनाव आयोग का है अत: कोई दावे से यह तो नहीं कह सकता कि ये मशीनें सत्ता पक्ष को कितना और कैसे सहयोग कर रही हैं लेकिन पिछले कुछ चुनावों में, जिनमें लोकसभा और विधानसभाएं शामिल हैं, जो दृश्य प्रचार के दौरान दिखाई देता रहा और जो परिणाम आए, वे गहन संदेह पैदा करते हैं। यह शक शर्तिया तौर पर ईवीएम की हेराफेरी को इंगित करते हैं। इसकी शुरुआत 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से हुई जिसके परिणामों से संदेह पुख्ता होता चला गया। उस चुनाव में सारी परिस्थितियां और माहौल साफ-साफ भाजपा के खिलाफ दिखाई दे रहा था जिसके कई कारण थे। प्रमुख थे- किसानों व महिलाओं पर हुए अत्याचार और कोरोना काल में लोगों की बदहाली। फिर भी नतीजे भाजपा के पक्ष में गये तो इसकी लगभग पुष्टि हुई कि ईवीएम के जरिये धांधलियां हुई हैं। ईवीएम इसलिये क्योंकि मतगणना की पूर्व संध्या पर कई मशीनें स्ट्रांग रूम से बाहर पाई गई थीं। मतगणना के दौरान कई मशीनों की बैटरी 99 फीसदी तक चार्ज पाये जाने से शक गहराया। जिन क्षेत्रों में भाजपा के प्रति सर्वाधिक नाराजगी थी वहां भाजपा के उम्मीदवारों की जीत ने इस संदेह पर मुहर लगाई।
2014 के पहले, यानी नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पूर्व तक जो भाजपा ईवीएम को लोकतंत्र का हत्यारा कहती थी और जिनके एक प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने भारी-भरकम किताब लिखकर इस तरीके से मतदान के दोष गिनाये थे, वही अब ईवीएम की सबसे बड़ी पक्षधर है। पिछले दो-ढाई वर्षों में जितने भी मतदान हुए हैं (लोकसभा व विधानसभा के) उनके परिणामों ने इसके प्रति शक को पुख्ता ही किया है। विपक्ष का दावा है कि वर्तमान लोकसभा में ईवीएम की हेराफेरी से लगभग 80 सीटें भाजपा ने जीती हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि यदि मशीनों का दुरुपयोग न होता तो आज भाजपा व उसका गठबन्धन एनडीए सत्ता में नहीं रहता और न ही मोदी पीएम होते। जनादेश की जैसी डकैती हुई है उससे इस आंदोलन का महत्व समझा जा सकता है। लोकतंत्र में उसे ही सरकार चलाने का अधिकार होता है जिसके पक्ष में जनता ने फैसला सुनाया हो- यहां तो उल्टा हुआ है। तिस पर यदि निष्पक्ष चुनाव कराने वाली एजेंसी यानी केन्द्रीय चुनाव आयोग ही किसी एक दल के साथ खड़ा हो और शीर्ष न्यायालय भी न सुने तो विपक्षी दलों के सामने जनता के बीच जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता। मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार से कई बार समय विपक्षी दलों ने गुहार लगाई पर उन्हें समय तक नहीं मिला। वहीं सुप्रीम कोर्ट वीवीपैट मिलान से भी इंकार करता है जो इस गड़बड़ी को रोकने का जवाब हो सकता है। कोर्ट कुछ ही संख्या में मिलान के लिये तैयार हुआ पर वह प्रतिशत नगण्य है। वह तो यह मानने के लिये ही तैयार नहीं कि मशीनें हैक हो सकती हैं।
ईवीएम के सरकार के अनुसार काम करने के कई सबूत हैं, जिनमें से एक तो यह है कि लाखों मशीनें लम्बे अरसे से गायब बताई जाती हैं जिनके इस्तेमाल के लिये ही सम्भवत: कई-कई चरणों में चुनाव कराये जाते हैं। दूसरे, भाजपा हर चुनाव जीतने के पहले जो भविष्यवाणी करती है, नतीजे वैसे या उसके आसपास के होते हैं। हाल के हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने इसे साबित भी किया है जब कुछ मिनटों में जीतते विपक्ष की संख्या एकाएक घट गयीं और नतीजे भाजपा के दावों के नज़दीक आये। इसलिये अपनी लोकप्रियता का दावा करने वाले मोदी बैलेट पेपर से चुनाव नहीं कराते। इस आंदोलन की महत्ता को देखते हुए जरूरी है कि सभी विरोधी दल और जनता इसमें शामिल हों। 26 दिसंबर को शुरु होने वाले से पहले रविवार को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में बहुजनों की महारैली में भी ईवीएम हटाने का उद्घोष हुआ और मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसमें आवाज़ बुलंद की। यानी देश में एक नयी क्रांति की शुरुआत हो चुकी है, जिसका मकसद लोकतंत्र बचाना है।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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