
-Anu Shakti Singh
भारत में सौ में से 94/95 अपराध पुरुष करते हैं। स्त्री अपराधियों की संख्या केवल छ: फ़ीसदी है।
दिखाया ठीक उलट जाता है। स्त्री को अपराधी घोषित करने के लिए पूरी दुनिया बेसब्र हो जाती है। लड़की/महिला का नाम आया नहीं कि उसे हर तरह से गुनहगार साबित करने की कोशिश शुरू हो जाती है।
चाहे वह रिया चक्रवर्ती हो या फिर निकिता! औरतें तब तक गुनहगार मानी जाती हैं, जब तक कोर्ट उनको क्लीन चिट नहीं दे देता है।
ब्लात्कार/ हत्या/ मार-पीट के अधिकांश दोषी पुरुष कोर्ट के फैसले तक आरोपी ही रहते हैं। हालांकि कानूनन औरतों को भी केवल आरोपी माना जाना चाहिए, स्त्री-विरोधी समाज क़ानून की बात भी कहाँ समझता है।
ब्लात्कार, छेड़-छाड़ घरेलू हिंसा जैसे मामले में पीड़ित स्त्री को दोष देने का चलन तो है ही। लड़की/औरत ने ही कुछ किया होगा तब तो आदमी/लड़के की नीयत डोली, हाथ उठाना पड़ा वगैरह वगैरह!
शक्तिशाली/न झुकने वाली स्त्रियां सदा की खलनायिका मानी गई हैं। सबसे अधम पुरुष की ज़ुबान भी उन स्त्रियों को खलनायिका क़रार देते हुए नहीं लड़खड़ाती। दुःखद यह है कि उन्हें रीढ़विहीन कुछ स्त्रियों का साथ भी मिल जाता है। वे औरतें जिन्हें पितृसत्ता का सहारा चाहिए होता है।
यही है पिछले कुछ सालों का हमारा समाज! जहाँ निम्नतम श्रेणी के पुरुषों को ‘बेनिफिट ऑफ़ डॉउट’ (संदेह का लाभ) मिल जाता है। जबकि निर्दोष स्त्रियाँ समाज की कटुता झेल रही होती हैं।
आज जब रिया को सीबीआई ने क्लीन चिट दी है, समाज को थोड़ी शर्म आएगी?
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)