
-द ओपिनियन-
कांग्रेस ने राजनीतिक दलों की बैसाखियों के सहारे को छोड़ने की ठान ली है। यह संकेत दिल्ली के विधानसभा चुनाव और राहुल गांधी के गत दिनों के पटना दौरे से नजर आने लगे हैं। कांग्रेस जहां दिल्ली में इंडिया गठबंधन के नेताओं के दबाव को दरकिनार कर अकेले दम पर विधानसभा चुनाव में उतर चुकी है और सत्ताधारी आम आदमी पार्टी और भाजपा को चुनौती दे रही है, वहीं पटना में राहुल गांधी ने लालू यादव परिवार से मुलाकात के बावजूद आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अपने पत्ते नहीं खोले हैं। समझा जाता है कि यदि दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपने ‘अकेला चालो रे’ के अभियान में थोडी भी कामयाबी मिली तो भविष्य में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन से दूरी बनाकर रखेगी। समझा जाता है कि कांग्रेस लीडरशिप ने महसूस किया है कि अधिकांश क्षेत्रीय दल उसी से टूटकर बने हैं और उनका अस्तित्व कांग्रेस के दलित, पिछडे और अल्पसंख्यक वोट ही हैं। इन क्षेत्रीय दलों की वजह से ही कांग्रेस राज्यों में कमजोर हुई है। इसका अनुमान पिछले यूपी और दिल्ली के विधानसभा चुनाव के नतीजों से देखा जा सकता है। दिल्ली में तो पिछले दो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी। यूपी में भी चार दशक से सत्ता से बाहर है। बिहार में ही गठबंधन करने के बावजूद सरकार में हमेशा थर्ड ग्रेड की भूमिका रही है।
शरद पवार, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे के बयानों और आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के तीखे हमलों के बावजूद कांग्रेस ने दिल्ली में न केवल अकेला मोर्चा खोला बल्कि उन वोटों को वापिस हासिल करने की पुरजोर कोशिश कर रही जो उसके पाले से आम आदमी पार्टी के पास चले गए और यह पार्टी लगातार सत्ता में बनी हुई है।
कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि यदि कांग्रेस दिल्ली में दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में सफल रही तो पांच से आठ सीट तक उसके खाते में जुड जाएंगी।
कांग्रेस जिस तरह से दिल्ली विधानसभा चुनाव लड रही है और जिन राज्यों में उसके मुख्यमंत्री हैं उन्हें चुनाव प्रचार अभियान से जोडा है उससे सबसे ज्यादा चिंतित आप है। हालांकि इन चुनावों में आप कांग्रेस को ज्यादा भाव नहीं दे रही है और उसका निशाना भारतीय जनता पार्टी है लेकिन वास्तव में सत्तधारी पार्टी को सबसे ज्यादा खतरा ही कांग्रेस से है। इसका कारण कांग्रेस को मिलने वाले वोट आप को ही नुकसान पहुंचाएंगे।
कांग्रेस हालांकि सत्ता में आने का दावा जता रही है लेकिन वास्तव में उसका निशाना आधा दर्जन से अधिक वे सीट हैं जहां अल्पसंख्यक और दलित वोट निर्णायक हैं। उसे लगता है कि यह सीट जीती जा सकती हैं इसलिए इन पर ही पूरा फोकस किया जाए। कांग्रेस ने इन सीटों पर ही अपना पूरा जोर लगा रखा है। पार्टी जल्द ही राजधानी में अपने गारंटी कार्ड वितरित करने के लिए डोर-टू-डोर अभियान शुरू करेगी, जिसका कर्नाटक, तेलंगाना और लोकसभा चुनावों के दौरान सफलतापूर्वक उपयोग किया गया था।
पार्टी दिल्ली चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस ने 20 सीटों की पहचान की है, जहां उसका मानना है कि उसके उम्मीदवारों के पास अन्य निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में अधिक संभावना है। उन्होंने इन सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों के चयन में भी सावधानी बरती है। यहीं कारण है कि पार्टी उम्मीदवार-केंद्रित अभियान चला रही है। उनका पहला कदम 2013 में मिली जगह को फिर से हासिल करना है, जब उसने आठ सीट जीती थी और तीसरे स्थान पर थी। जबकि 2008 में कांग्रेस ने 43 सीटें जीते थे और उसे लगभग 40 प्रतिशत वोट मिले थे।