
-देशबन्धु में संपादकीय
गुरुवार का दिन दो घटनाक्रमों के चलते भारतीय राजनीति के लिये बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ है, या कहें कि होने जा रहा है- खासकर विपक्षी गठबन्धन इंडिया की दृष्टि से देखें तो। पहला देश की राजधानी दिल्ली के संसद भवन में हुआ है, तो दूसरा झारखंड की राजधानी रांची में। देश के प्रथम राजनैतिक परिवार अर्थात नेहरू खानदान की 16वीं सदस्य के रूप में प्रियंका गांधी ने लोकसभा की सदस्यता ग्रहण की- बतौर वायनाड (केरल) प्रतिनिधि। इसके साथ ही कांग्रेस ने सदन में तिहाई का आंकड़ा छू लिया। हेमंत सोरेन ने रांची में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 2000 में बने इस राज्य में पहली बार हो रहा है कि कोई लगातार दो बार सीएम बना है। वैसे पिछले कार्यकाल के अंतिम चरण में उन्हें जेल जाना पड़ा था जिसके कारण उन्होंने इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया था लेकिन जमानत पर लौटने के बाद वे फिर इस पद पर काबिज हुए थे। उन्हीं के नेतृत्व में वहां झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबन्धन सत्ता में लौटा है। प्रियंका का संसद प्रवेश करना हो या जेएमएम-कांग्रेस की सरकार का बनना, दोनों घटनाक्रमों में एक समानता यह है कि दोनों भारतीय जनता पार्टी, विशेषतः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बेहद चुभने वाले हैं। दूसरा यह कि इन दोनों से इंडिया गठबन्धन को ताक़त मिलेगी।
प्रियंका गांधी का लोकसभा में आना सिर्फ इस लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं है कि नेहरू-गांधी परिवार के एक और सदस्य ने संसदीय राजनीति में प्रवेश किया है। यह वही प्रियंका है जो राजनीति को लम्बे समय तक ‘ना, ना’ कहती रहीं। जब कांग्रेस का सबसे अच्छा न भी कहें तो सहूलियत भरा वक़्त अवश्य था, तब भी वे नहीं आईं। हालांकि उनका चुनावी राजनीति से करीबी नाता रहा है। कहें तो उनके बड़े भाई व पहले से सक्रिय राजनीति में आए राहुल से कहीं अधिक सघन रूप से उन्होंने चुनावी राजनीति में हिस्सा लिया। उनके छुटपन के कई दिन प्रधानमंत्री पिता राजीव गांधी के साथ उनके चुनावी क्षेत्र अमेठी में गुजरे थे, तो बाद में वे अपनी मां सोनिया गांधी का चुनावी प्रबन्धन कर्नाटक के बेल्लारी से लेकर रायबरेली तक सम्हाला करती थीं। अमेठी में ही उन्होंने अपने भाई को हारते और जीतते देखा और दोनों ही मर्तबा वे उनके साथ थीं- इलेक्शन ड्यूटी करते हुए। भाई का साथ उन्होंने इसी वायनाड के चुनावी मैदान में भी निभाया। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जब रणनीतिक निर्णय के अंतर्गत राहुल को रायबरेली और वायनाड से एक साथ लड़ाया गया तो प्रियंका ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए भाई को दोनों सीटों पर जीत दिलाई। इतना ही नहीं, वर्षों से उनके परिवार का हर चुनाव में मोर्चा सम्हालने वाले किशोरीलाल शर्मा को भी उन्होंने बरास्ता अमेठी लोकसभा प्रवेश कराया।
यह सब उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में किया। हालांकि जब वे सक्रिय राजनीति में नहीं थीं, तब भी नेहरू-गांधी परिवार के लिये भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इस कुनबे के अघोषित प्रवक्ता आईटी सेल और लाखों की संख्या में सोशल मीडिया पर विचरण करने वाली असभ्य व अशालीन ट्रोल आर्मी की फैलाई घृणा का वे शिकार बनती रहीं। 2014 के बाद 2019 में जब कांग्रेस की लोकसभा में सदस्य संख्या और घट गयी तथा अनेक मोर्चों पर सतत गिरावट दर्ज करती हुई वह बेहद कमजोर हो गयी तब एक बड़ी ज़रूरत व जिम्मेदारी को महसूस करती हुई इसकी सदस्य बनीं। वे महासचिव बनीं और उत्तर प्रदेश की प्रभारी भी, जिसकी लोकसभा में एकमात्र प्रतिनिधि उनकी मां यानी सोनिया गांधी थीं। 2022 का विधानसभा चुनाव उनके मार्गदर्शन में लड़ा तो गया परन्तु ख़ास सफलता हाथ नहीं लगी। इस नाकामी ने उन्हें निराश किया होगा परन्तु वे विभिन्न मुद्दों, विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई आदि को लेकर बेहद सक्रिय व आक्रामक रहीं। समय के साथ उन्होंने खुद को कांग्रेस के समग्र विमर्शों में समाहित किया। राहुल गांधी की दो भारत यात्राएं हों अथवा विभिन्न राज्यों के चुनाव; या फिर लोकसभा चुनाव- प्रियंका कहीं ठहरती या ठिठकती नज़र नहीं आईं। हर राज्य के चुनाव प्रचार में वे स्टार प्रचारक बनकर उतरतीं और सुर्खियां बटोरती रहीं।
अपनी मां की तरह शालीन लेकिन भाई की तरह आक्रामक तेवर वाली प्रियंका में यदि लोग उनकी दादी इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं। संसद के बाहर इंदिरा जैसी निर्भीकता का पर्याप्त प्रदर्शन कर चुकीं प्रियंका के लोकसभा प्रवेश से भाजपा, खासकर मोदी का खौफ़ज़दा होना स्वाभाविक है, जिनकी सियासत की बुनियाद नेहरू परिवार के प्रति नफ़रत फैलाने पर टिकी है और मीनारें उनके मौजूदा व पूर्ववर्ती सदस्यों के लिये लांछनों से भरी टिप्पणियां करने वाले समर्थकों से बनती हैं। सम्भवतः भाजपा के इसी विमर्श का यह प्रतिफल है कि पहली बार संसद में इस प्रतिष्ठित परिवार के तीन-तीन सदस्य एक साथ नज़र आ रहे हैं।
मोदीजी के लिये शायद इससे अधिक बुरा कुछ नहीं हो सकता कि एक ओर प्रियंका उनके ठीक सामने बैठने जा रही हैं, तो दूसरी तरफ़ उस झारखंड में भाजपा की सरकार नहीं बन पाई जो उनके कारोबारी मित्र गौतम अदाणी के व्यवसाय के लिये बहुत उपयोगी साबित होता। यह निश्चित ही इंडिया की मजबूती का दिन है। झारखंड के साथ जिस राज्य के विधानसभा चुनाव के नतीजे आये थे वह महाराष्ट्र्र था, जहां महाविकास आघाड़ी यानी इंडिया को असफलता मिली थी। प्रियंका के संसद प्रवेश और हेमंत सोरेन की वापसी को उस नुक़सान की भरपाई तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन गैर भाजपाई दलों को लड़ते रहने का हौसला अवश्य मिलेगा।