नये मुख्य न्यायाधीश से अपेक्षाएं

cji khanna ...
जस्टिस संजीव खन्ना। फोटो साभार पीआईबी।

-देशबन्धु में संपादकीय 

 

बतौर मुख्य न्यायाधीश हाल के वर्षों में सबसे लम्बे कार्यकाल को पूरा करने वाले जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ के सेवानिवृत्त होने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में जस्टिस संजीव खन्ना ने सोमवार को कार्यभार सम्हाल लिया है। अगले छह माह तक इस जिम्मेदारी को संभालने के बाद वे 13 मई, 2025 को रिटायर होंगे। पिछले कुछ वर्षों से देश के जो हालात हैं तथा न्यायदान की इस सर्वोच्च संस्था में ही जो कुछ हुआ है उसके चलते अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से सिर्फ इस बात की अपेक्षा नहीं रह जाती कि वे लम्बित मामलों को कितनी जल्दी निपटाते हैं; या उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को कितना सहज बनाया अथवा अपने दायरे में कौन से व्यवस्थागत सुधार किये। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्य पद्धति ने शीर्ष अदालत की भूमिका को औपचारिक जिम्मेदारियों से कहीं अधिक बड़ा और महत्वपूर्ण बना दिया है। जस्टिस खन्ना के पूर्ववर्ती चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ द्वारा जिस तरीके से अपने प्रारम्भिक कार्यकाल में आस जगाई परन्तु जाते-जाते उनका जो आकलन हुआ वह निराशाजनक रहा। इसलिये अब मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खन्ना समेत आने वाले हर सीजेआई के कामों की समीक्षा इस आधार पर होगी कि वे सरकार से संविधान तथा नागरिक अधिकारों को कितना बचा पाते हैं।

51वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेने वाले जस्टिस खन्ना की सिफारिश 2019 की कोलेजियम ने की थी। यदि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखें तो वे जस्टिस हंसराज खन्ना के भतीजे हैं, जिन्होंने आपातकाल के दौरान हैबियस कॉर्पस वाले मामले में अकेली असहमति जताई थी। उन्होंने कहा था कि बगैर समुचित प्रक्रिया के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलम्बित नहीं किया जा सकता। इसका खामियाजा उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्य न्यायाधीश के चयन में उनकी वरिष्ठता को नज़रंदाज कर दिया था। फलतः उन्होंने सत्ता के सामने सिर न झुकाते हुए त्यागपत्र दे दिया था। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में उनका सम्मानजनक स्थान बना हुआ है। जस्टिस संजीव खन्ना का न्यायविदों का परिवार है जो अपनी ईमानदारी व कर्तव्य परायणता के लिये प्रसिद्ध है।

जस्टिस खन्ना दिल्ली हाईकोर्ट से आते हैं और इस कोटे में सुप्रीम कोर्ट के इस पद तक पहुंचने वाले वे दो दशकों में पहले न्यायाधीश हैं। हालांकि इस मानदण्ड में किसी को सीजेआई बनाने की व्यवस्था का पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं वर्तमान सांसद रंजन गोगोई ने अपनी आत्मकथा में मज़ाक उड़ाते हुए कहा है कि यह लाभ मिलने का कोई आधार नहीं हो सकता, वैसे ही जैसे कि उन्हें उनके बहुत छोटे कार्यकाल का मिल रहा है। जस्टिस गोगोई अनेक फैसलों तथा व्यक्तिगत जीवन के कारण बेशक विवादास्पद (रामजन्म भूमि का फैसला, खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के मामले की खुद सुनवाई करना, सेवानिवृत्त होकर राज्यसभा की सदस्यता ग्रहण करना आदि) रहे हैं परन्तु उनका यह कहना तर्कसंगत है कि दिल्ली कोटे तथा कार्यकाल के चलते किसी का चीफ जस्टिस बनना उचित नहीं है। इस मानदण्ड पर देखें तो जस्टिस संजीव खन्ना कोई विशेष योग्यता लेकर नहीं आ रहे हैं। इसके बावजूद यदि उनके अब तक के महत्वपूर्ण निर्णयों को देखें तो कुछ फैसले उल्लेखनीय हैं। इनमें प्रमुख है चुनावी बॉण्ड योजना को असंवैधानिक घोषित करना तथा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को इस आधार पर जमानत देना कि उन्हें जेल में पहले ही 90 दिनों तक रखा जा चुका था।

मुख्य न्यायाधीश पद के साथ जो महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी जुड़ी है, वह है ‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ की। यानी कौन सा मामला किस जस्टिस के पास सुनवाई के लिये जाये, यह निर्धारण भी उसे करना होता है। लम्बे समय तक सीजेआई के इस उत्तरदायित्व के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी परन्तु पिछले दिनों सरकार के विरोधी कहे जाने वाले अनेक लोगों के मामले जब एक ऐसी न्यायाधीश के पास जाने लगे जो गुजरात हाईकोर्ट से आई हुई हैं, तो लोगों की नजरें चीफ जस्टिस के ‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ की भूमिका पर भी गयीं। वह भी इसलिये कि उन जस्टिस की कलम से ज्यादातर ऐसे निर्णय आये जो सरकार के पक्ष में थे। नये सीजेआई को ‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ की भूमिका तथा कार्यप्रणाली में ही पारदर्शिता तथा निष्पक्षता लानी होगी। मास्टर की शक्तियां असीमित हैं और उसे चुनौती देना तो दूर, उस पर सवाल भी खड़े नहीं किये जा सकते। जस्टिसों की नियुक्तियों के लिये बने कोलेजियम के कामकाज को पारदर्शी बनाने की भी जस्टिस खन्ना की जिम्मेदारी होगी जो पारदर्शी न्याय प्रणाली की मांग करने वाले चाहते रहे हैं।

वकालत में 23 वर्षों का अनुभव रखने वाले जस्टिस खन्ना दिल्ली हाईकोर्ट में फरवरी 2006 में परमानेंट जज बने थे। सुप्रीम कोर्ट में अनेक महत्वपूर्ण फैसलों में वे स्वतंत्र रूप से या बेंच का हिस्सा रहे। उन्होंने शत-प्रतिशत वीवीपैट मिलान की मांग को खारिज कर दिया था जिसके कारण ज्यादातर लोगों को लगता है कि यह भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गया है। ऐसे ही, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 रद्द करने के खिलाफ दायर याचिका को अमान्य कर दिया था जो भाजपा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का उपकरण था। वैसे वे मोदी सरकार की लाई इलेक्टोरल बॉंड्स योजना को असंवैधानिक कहने वाली बेंच का हिस्सा थे, लेकिन इसमें किसी से एक पैसे की भी वसूली नहीं की। यानी गैरकानूनी धन उसे पाने वाले के पास ही रहने दिया। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई से जुड़े यौन उत्पीड़न मामले पर बनी 3 सदस्यीय बेंच का भी वे हिस्सा थे जिसने शिकायत को रद्द कर दिया था। बेंच ने मामले की प्रेस द्वारा रिपोर्टिंग पर भी रोक लगाई थी। इस पर भी कई सवाल उठे थे। अब मौजूदा निरंकुश कार्यपालिका के समक्ष न्यायपालिका के प्रमुख सूत्रधार के रूप में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना अपने छह महीनों के कार्यकाल में क्या उनसे बंधी अपेक्षाएं पूरी कर पाते हैं और न्यायपालिका की साख को और ऊंचा उठाते हैं, ये देखना होगा।

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments