
-देशबन्धु में संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में कार्यरत पत्रकार मुकेश चन्द्राकर की नृशंस हत्या से एक ओर तो राज्य सहित पूरा देश स्तब्ध है, तो वहीं इस घटना ने फिर से साबित कर दिया है कि भारत में पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा हो गया है। अपने पेशे के प्रति बेहद ईमानदार तथा संवेदनशील मुकेश पहली जनवरी की शाम को एक फोन आने के बाद घर से निकले तथा अगली शाम तक वे लापता रहे। चिंतित परिजनों तथा साथी पत्रकारों ने उनकी खोज-बीन शुरू की। समझा जाता है कि उन्हें बीजापुर के ही एक बड़े ठेकेदार सुरेश चन्द्राकर के परिवार के किसी सदस्य का उन्हें फोन आया था जो मुकेश से मिलने के इच्छुक थे। कुछ ही दिन पहले मुकेश ने अपने यूट्यूब चैनल पर सुरेश चन्द्राकर द्वारा बनवाई जा रही मिरतूर-गंगालूर सड़क में कथित भ्रष्टाचार को लेकर विस्फोटक खबर चलाई थी। अनुमान लग रहे हैं कि इसके चलते मुकेश की हत्या की गयी है। उनका शव 3 जनवरी की शाम को चन्द्राकर के परिसर में बने बैडमिंटन कोर्ट के नीचे सेप्टिक टैंक में मिला। यह भी बताया जाता है कि पुलिस इस टैंक को तोड़ने के पक्ष में नहीं थी लेकिन अन्य पत्रकारों के ज़ोर देने पर उसे तोड़ा गया। इस सिलसिले में 3 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है।
दुनिया भर में लड़ाइयों, गृह युद्धों, आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकार अपना उत्तरदायित्व निभाते हुए प्राण गंवाते हैं। वैसे ही अब भारत में पूंजीपतियों व कारोबारियों के ख़िलाफ़ लिखना भी ख़तरनाक हो गया है। यदि ऐसे धन्ना सेठों का गठजोड़ राजनेताओं से-विशेषकर सत्ता पक्ष से है, तो समझिये कि उनके खिलाफ या उनके व्यवसायिक हितों पर चोट करने वाली कोई भी खबर लिखना या दिखाना, खुद को संकट में डालने जैसा हो गया है। हाल के वर्षों में एक तरह से व्यवसायियों और नेताओं के बीच अघोषित सी संधि बनी हुई है जिसके अंतर्गत दोनों पक्ष परस्पर हितों का संरक्षण करते हैं। कारोबारी सियासतदानों को चुनाव के वक्त और ज़रूरी मौकों पर आर्थिक मदद देते हैं। इसके बदले में नेता यदि सत्ता में हों तो उनके व्यापार को संरक्षण देने और उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को ख़त्म करने का काम करते हैं। विपक्ष में रहकर भी राजनीतिक व्यक्ति व दल अन्य तरीकों से उनकी मदद करते हैं। इनमें प्रमुख तो यही है कि विरोधी दल उन्हें बख़्श दें। यानी उनके कामों पर उंगलियां न उठायें।
बहरहाल, नये भारत में, यानी 2014 के बाद से सत्ता पक्ष और अखबारनवीसी के रिश्ते भी बदले हैं। भारतीय जनता पार्टी ने लोगों से संवाद के तरीकों में कुछ ऐसा परिवर्तन किया है कि उसमें मीडिया को अनिवार्यतः सत्ता पक्ष का एक तरह से सक्रिय सहयोगी बना दिया गया है। यहां सत्ताधारी दल से तात्पर्य भारतीय जनता पार्टी से है। उसने प्रकारान्तर से मीडिया पर पूर्णतः अधिकार सा कर लिया है। मीडिया सत्ता ही नहीं, भाजपा की भाषा बोलने में भी पारंगत हो गया है। सरकार के नज़दीकी व्यवसाय समूहों ने मीडिया को खरीदकर खुद और सत्ता की सेवा के काम में लगा रखा है। स्वाभाविक है कि इसका उद्देश्य विरोध के स्वर को खत्म करना है, फ़िर चाहे वह सरकार का विरोध हो या फिर कारोबारियों का। मुख्यधारा का मीडिया आज ज़्यादातर इन दो समूहों के एजेंडे को पूरा करने में व्यस्त है- सरकार व सत्ता पक्ष के राजनीतिक एजेंडे तथा कारोबारियों के व्यवसायिक हितों को संरक्षित और संवर्धित करने के।
पूरी दुनिया की ही तरह भारत में एक समांतर मीडिया भी खड़ा हो गया है जो किसी के एजेंडे को चलाने या उस पर चलने के बजाये स्वतंत्र चेतना व विवेक रखता है, लेकिन उसे एक बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। फिर वह कोई समूह हो या पत्रकार। मुकेश पत्रकारिता की उसी धारा के तहत काम करते थे। कुछ मीडिया समूहों में काम करने के बाद उन्होंने अपना स्वतंत्र प्लेटफ़ॉर्म बनाया, जिसके जरिए वे बस्तर के बुनियादी मुद्दों से वे जूझ रहे थे। माओवाद की भीतरी कंदराओं से लेकर विकास के नाम पर होने वाले भ्रष्टाचार, कारोबारियों को बचाने वाले तत्वों तथा ऐसा हर वह मसला उनकी पत्रकारिता का विषय था जिसका सरोकार आमजन से है। ग्रामीण और आदिवासी लोगों के कई मुद्दों को उठाने का उन्हें श्रेय जाता है। जाहिर है कि इसके लिये जिगर चाहिये- वह उनमें था। तभी कुछ अरसा पहले नक्सलियों द्वारा अगवा कर लिये गये एक सीआरपीएफ़ जवान को वे अकेले अपने दम पर छुड़ा लाये थे।
लेकिन भ्रष्ट तंत्र के बिछाए जाल ने उनकी जान ले ली। यह भारतीय पत्रकारिता की नयी तस्वीर है। न तो पत्रकार भ्रष्टाचारी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कुछ लिख सकता है और न ही कारोबारियों के। शासन के ख़िलाफ़ तो बिलकुल नहीं। हालिया दौर में अनेक ऐसे शर्मनाक वाकये हुए हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक देश का सर शर्म से झुकाने के लिये पर्याप्त हैं, जिसकी बुनियाद स्वतंत्र प्रेस होता है। ऐसा नहीं कि केवल सुदूर इलाकों में ही पत्रकारिता करना दुरूह हो गया है। ग्रामीण-आदिवासी इलाके हों या कस्बे या फिर महानगर। कहीं मध्यान्ह भोजन में भ्रष्टाचार को लेकर खबर छापने पर पत्रकार को जेल भेजा जाता है तो कभी कोई अप्रिय सवाल पूछने पर मंत्री खुलेआम पत्रकार को डांट लगाते हैं अथवा उनके मालिकों को उसकी शिकायत कर दी जाती है। हाल के वर्षों में अनेक पत्रकार सलाखों के पीछे डाले गये हैं। यही कारण है कि प्रेस की आजादी के मामले में भारत का क्रमांक विश्व रैंकिंग में शर्मनाक ढंग से काफी नीचे हो गया है। दुखद तो यह है कि सरकार ही प्रेस की स्वतंत्रता को कुचल रही है।
फिलहाल मुकेश चंद्राकर मामले में पुलिस ने कुछ गिरफ़्तारियां की हैं, सरकार ने एसआईटी गठित की है, ताकि मामले की निष्पक्ष और त्वरित जांच हो सके। इसके अलावा मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने अपनी सरकार को पत्रकारों के साथ खड़ा बताते हुए कहा है कि जल्द ही पत्रकार सुरक्षा कानून राज्य में लाया जाएगा। यह आश्वासन फ़िलवक़्त तसल्ली देता है, हालांकि सही इंसाफ़ तभी होगा जब मुकेश के हत्यारों को सज़ा होगी और भविष्य में ऐसी घटनाएं नहीं होंगी।