
-धीरेन्द्र राहुल-
एक समय देश के ख्यातनाम समाजवादी लीडर रहे मधु लिमये संविधान और संसदीय परम्पराओं के भी मर्मज्ञ थे। कोटा की जनाधिकार परिषद ने एक बार संबोधन के लिए उन्हें कोटा बुलाया था।
भारतेन्दु समिति सभागार में हुआ उनका दिया भाषण मुझे आज तक याद है। उन्होंने कहा था कि हमारे देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। कभी लोकसभा तो कभी विधान सभा तो कभी जिला परिषद तो कभी पंचायत समिति तो कभी सरपंच और प्रधान के चुनाव चल रहे होते हैं। अगर इनसे राहत मिलती तो उपचुनाव चल रहे होते हैं।
हमारी सरकारी मिशनरी अपना सारा कामधाम छोड़कर चुनाव करवाने में ही लगी रहती है। अरबों रूपया इस अनुत्पादक कवायद में खर्च हो जाता है।
उन्होंने कहा कि हमारे यहां तो कुंभ की परम्परा रही है। फिर क्यों नहीं हर पांच साल में एक बार चुनाव का महाकुंभ आयोजित किया जाए। क्यों नहीं लोकसभा, विधानसभा, जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत के चुनाव एक साथ करवा लिए जाते। पार्टियों को भी सुविधा रहेगी कि योग्यता के हिसाब से वे लोक सभा से लेकर ग्राम पंचायत के टिकट बांट सकेंगे।
उन्होंने कहा था कि जनता पार्टी का गठन हुआ तो आपातकाल के अनुभव से लोग डरे हुए थे। योग्य उम्मीदवार नहीं मिले तो जबरन टिकिट बांटे गए। जो पंचायत के लायक थे वे संसद में आ बैठे तो वहां भी उन्होंने लठ बजा डाले।
मधुजी तो महाकुंभ की वकालत कर चले गए। कुछ समय बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी कोटा आए तो पत्रकार वार्ता के दौरान यही सवाल हमने उनके सामने रखा। इस पर आडवाणी ने कहा कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही होने चाहिए लेकिन मैं गृहमंत्री भी रहा हूं। इस नाते कह सकता हूं कि अगर महाकुंभ आयोजित करते हैं तो सुरक्षा बलों का बंदोबस्त करने में दिक्कत आ सकती है।
अब मैं अपनी बात कहता हूं।
देश आजाद होने के बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ – साथ होते रहे हैं लेकिन फिर विपक्ष की सरकारों को भंग करने और राष्ट्रपति शासन लागू करने का सिलसिला शुरू हुआ तो यह क्रम भंग हो गया। बाद में इस मुद्दे को लेकर मांग भी उठाई जाती रही लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के हित इसमें आड़े आते रहे।
दशकों बाद नरेन्द्र मोदी सरकार इसे लेकर गंभीरतापूर्वक सोच रही है। जैसा कहा जा रहा है,
हो सकता है कि नई व्यवस्था का लाभ मोदी लूट ले जाए लेकिन वोट देने वाली तो जनता ही है। वही तय करेंगी कि देश किसके हाथों में सुरक्षित रहेगा। फिर मोदी तो हमेशा रहेंगे नहीं , लेकिन संवैधानिक व्यवस्था तो तब तक रहेंगी जब तक देश में लोकतंत्र है।
यह नई व्यवस्था देश और लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाली है। अरबों खरबों के व्यवस्थागत खर्च से राहत दिलाने वाली है। हमें अपने पडोसी पाकिस्तान से सबक लेना चाहिए, जहां कहने को लोकतंत्र है। निकट भविष्य में वहां चुनाव होने वाले हैं लेकिन सरकार के पास चुनाव खर्च के पैसे नहीं है। वे इसके लिए भी विकसित देशों के पास कटोरा लेकर निकले हुए हैं कि चुनाव के नाम पर ही दे दे दाता।
मतदान के लिए मशीनों का इस्तेमाल कर पहले हमने अरबों रूपए की स्टेशनरी बचाई। अब वक्त आ गया है अनुत्पादक खर्चों पर भी अंकुश लगाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)
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वर्तमान चुनाव प्रणाली से देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आ रही है,सभी राजनीतिक पार्टियों को ,देश हित में,एक नेशनल एक चुनाव की अवधारणा को स्वीकार करना चाहिए, वर्ना गरीब,किसान, बेरोजगारी की बातें करना बेनामी हैं