संशोधन से चुनावी प्रक्रिया अधिक शंकास्पद

-देशबन्धु में संपादकीय 

संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर के खिलाफ गृह मंत्री अमित शाह द्वारा दिये गये अपमानजनक वक्तव्य को लेकर जब संसद के दोनों सदनों में हंगामा मचा हुआ था, उसका फ़ायदा उठाकर सरकार ने चुनावी प्रक्रिया सम्बन्धी इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ों के निरीक्षण अथवा सार्वजनिक करने को प्रतिबन्धित कर दिया। अब फुटेज, रिकॉर्डिंग आदि नहीं मांगे जा सकेंगे। यह संशोधन शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन में किया गया जिसका समापन 20 दिसम्बर को हुआ। ईवीएम पर पहले से अविश्वास जतलाया जा रहा है, अब चुनावी प्रक्रिया को यह संशोधन और भी शंकास्पद बनाता है। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इस पर ऐतराज़ जता रहे हैं, जो वाजिब है।

गौरतलब है कि हरियाणा चुनाव में गड़बड़ी की आशंका पर वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा ने अक्टूबर 2024 को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिस पर 9 दिसंबर को अदालत ने चुनाव आयोग को हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान एक पोलिंग बूथ के वीडियोग्राफ़ी, सीसीटीवी फुटेज और वोटों से जुड़े कागजात की प्रति श्री प्राचा को देने का आदेश दिया था। इसके लिए छह सप्ताह का वक़्त दिया गया था। लेकिन चुनाव आयोग ने नियम में संशोधन की सिफारिश सरकार से की और कानून मंत्रालय ने 20 दिसम्बर को चुनाव नियमों में यह बदलाव कर दिया। हड़बड़ी में किए गए इस बदलाव से शंका उपजती है कि किसी गड़बड़ी को छिपाने के लिए संशोधन किए गए हैं।

बदले नियम के तहत सीसीटीवी कैमरा और वेबकास्टिंग फुटेज के साथ-साथ प्रत्याशियों की वीडियो रिकॉर्डिंग जैसे इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों का भी सार्वजनिक निरीक्षण नहीं किया जा सकेगा। सरकार ने यह बदलाव केन्द्रीय चुनाव आयोग की सिफारिश के आधार पर किया है और इसका उद्देश्य इन दस्तावेजों या फुटेज के दुरुपयोग को रोकना बतलाया है। चुनाव संचालन नियम, 1961 के नियम 93 (2)(ए) में यह संशोधन किया गया है। पहले नियम 93 हर किसी को सभी चुनावी दस्तावेजों के सार्वजनिक निरीक्षण तथा उनकी सभी के लिये उपलब्धता का अधिकार देता था। चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार यह संशोधन गोपनीयता के उल्लंघन को रोकने तथा इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों (रिकॉर्डिंग, फुटेज आदि) के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा दुरुपयोग को रोकने हेतु ज़रूरी है। इसकी ज़रूरत इसलिये भी बतलाई गयी कि इन दस्तावेजों, खासकर इलेक्ट्रॉनिक फुटेज का लाभ आतंकवाद से प्रभावित जम्मू-कश्मीर अथवा माओवाद से पीड़ित संवेदनशील क्षेत्रों में सक्रिय तत्व उठा सकते हैं। आयोग के मुताबिक पिछले चुनावों से सम्बन्धित कई दस्तावेज उपलब्ध कराने हेतु निवेदन आये थे। अब ऐसे दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराये जायेंगे जिनका नियमों से सम्बन्ध या सन्दर्भ नहीं है।

कहने को तो निर्वाचन आयोग ने यह सिफारिश उनका दुरुपयोग रोकने के लिये की है परन्तु सर्वज्ञात है कि मौजूदा चुनाव आयोग के सारे काम-काज और नियम-कायदे पूरी तरह से सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में किये जाते हैं। इसलिये यह कदम भी गहरे संदेह के घेरे में आ गया है। आयोग की विश्वसनीयता पहले ही इतनी गिर चुकी है कि इसे भाजपा की जेब में रखा माना जाता है। उसका आचरण पिछले कुछ वर्षों से अत्यंत पक्षपाती और मनमाना रहा है। अनेक ऐसे मुद्दे रहे हैं जिनमें निर्वाचन आयोग के सारे फ़ैसले भाजपा के पक्ष हुए हैं। आरोप लगते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में बने रहने के लिये आयोग को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले रखा है।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार पर भी उंगलियां उठती हैं कि उन की भूमिका और मंशा सिर्फ भाजपा को लाभ देने की रहती है। इस संवैधानिक संस्था की ताकत व महत्व को समझकर मोदी सरकार ने एक संशोधन यह किया कि मुख्य आयुक्त का चयन करने वाले पैनल से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटा दिया। अब इसमें केवल प्रधानमंत्री, एक केन्द्रीय मंत्री तथा विपक्ष के नेता हैं। स्वाभाविक है कि सरकार की मर्जी का ही व्यक्ति इस पद पर बैठ सकेगा। फिर, दो अन्य आयुक्तों को भी पूर्णतः शक्तिविहीन कर दिया गया है। वे नाममात्र के सदस्य बनकर रह गये हैं। मुख्य आयुक्त का फैसला ही अंतिम होगा।

चुनावी प्रक्रिया को अपारदर्शी और पक्षपाती बनाने के एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हाल के वर्षों में देखे गये। विधानसभाओं के चुनाव हों या लोकसभा के, चुनाव आयोग का काम केवल विरोधी दलों के खिलाफ मामले बनाना तथा भाजपा व उसके सहयोगी गठबन्धनों को क्लीन चिट देना रह गया है। मोदी, शाह से लेकर भाजपा के अनेक नेतागण जमकर और खुल्लमखुल्ला हेट स्पीच करते हैं परन्तु उनके खिलाफ कभी सख्त कार्रवाई नहीं होती। इसके विपरीत विपक्षी दलों के लोगों को नोटिस भेजने से लेकर उनके प्रचार पर बन्दिश लगाने में आयोग देर नहीं करता। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का मसला लम्बे समय से चर्चा में है। ईवीएम में हेराफेरी के आरोप लगते रहे हैं परन्तु आयोग सुनने को तैयार नहीं है। संदेह है कि उसे हैक किया जा सकता है और हाल के वर्षों में चुनावों के अनेक नतीजे उसके जरिये भाजपा के पक्ष में बदले गये हैं। दावा तो यह भी है कि इसी लोकसभा चुनाव में ईवीएम की गड़बड़ी के जरिये भाजपा को बहुमत मिल सका है। कई दलों, संगठनों एवं व्यक्तियों का दावा है कि यह मशीन हैक हो सकती है परन्तु आयोग इस तर्क पर अड़ा रहता है कि ऐसा सम्भव नहीं है। यह नया संशोधन निर्वाचन आयोग एवं चुनावी प्रक्रिया को और भी अपारदर्शी, संदेहास्पद तथा जनविरोधी बनायेगा।

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