-डॉ अनिता वर्मा-

निदा फ़ाजली की ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ वर्तमान में अति प्रासंगिक लगती है “हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी….। परिवर्तित परिवेश ने बहुत कुछ बदला है ,समाज और परिवारिक सन्दर्भ बदल गये ।संयुक्त परिवार की टूटन एकल परिवार और एक व्यक्ति में आकर मानों ठहर सी गई है पीढ़ियों के अंतराल से उपजे अन्तर्द्वन्द्व ने मनुष्य को भीड़ में अकेला कर दिया है लोग बेतहाशा प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं । महत्वाकांक्षाएं बढ़ी है ।आधुनिक पीढ़ी अर्थ केंद्रित सोच के साथ अपने कॅरियर निर्माण में अपने ही घरों में बेगाने हो रहे हैं।सुख सुविधा के विस्तार ने मानव मन को संकुचित किया है सामन्जस्य तो मानों उनकी जीवन शैली से गायब है। आधुनिक शिक्षा में बचपन अपने भविष्य निर्माण में ग़ुम हो रहा भारी बस्ते और पढाई के बोझ तले फुरसत किसी को नहीं सब व्यस्त हैं…. संवाद ग़ायब है ….अपनापन गुम सा गया है। इसके पश्चात् युवा पीढ़ी भविष्य निर्माण की और उन्मुख हो जाती है।समय ही कहाँ मिलता है परिजनों से बात करने का फिर आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने पर जो कि आवश्यकता भी होती है अन्यथा आधुनिक जीवनशैली की आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे संभव होगी ।महत्वाकांक्षा के बाहुपाश में जकड़ा मनुष्य कुछ सोच ही नहीं पाता।सबकी अपनी दुनियां सबकी अपनी व्यस्तता क्या बड़े, क्या युवा और क्या बच्चे । किसी के पास किसी के लिए समय नहीं वैसे तो संयुक्त परिवार बिखर गए है पर जहाँ बुजुर्ग साथ रहते है।वहाँ की स्थिति देखिये बच्चे सुबह स्कूल युवा अपनी कोचिंग या नौकरी पर मां बच्चे सब व्यस्त है बुजुर्ग से कौन बात करें उनका एकाकीपन बाँटने के लिए किसके पास समय है।शाम का दृश्य देखिये बच्चे स्कूल आया के साथ समय व्यतीत करते है । शरीर से अशक्त अपनों की बेरूखी से आहत बुजुर्ग जो हमारे लिए वट वृक्ष के सामान होते थे आज उनके लिए किसी के पास समय नहीं है।घर से आँगन गायब है आँगन से चिड़ियों की चहचहाट सुनने का समय किसी के पास नहीं है। अर्थ की अंधी दौड़ में बेतहाशा भागता मनुष्य जिसके लिए जीवन लेपटॉप में सिमट आया है उसे किसी की आवश्यकता नहीं रह गई ।सामाजिक सरोकार उसके लिए बेमानी हो गए है । मन का आँगन सूना पड़ा है , जीवन में इतनी व्यस्तता बढ़ गई है कि मित्रों से सुख दुःख बाटें हुए, ठहाके लगाए मानों बरस हो गए कारण वही व्यस्तता सुबह उठने से लेकर सोने तक निर्धारित जीवन शैली निर्धारित हो गई है और साथ ही अगले दिन का कार्यक्रम भी निर्धारित हो जाता है।किसी के पास फुरसत नहीं क्या बच्चे क्या युवा क्या वृद्ध सब अपने अपने में मगन हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता बढ़ी है पर बच्चे अपने परिवार से दूर हो रहे है यह भी उनकी विवशता और महत्वाकांक्षाओं के बीच पिसता मनुष्य चक्करघिन्नी सा घूम रहा है।कई परिवारों में जहाँ एक ही बच्चा है, वह विदेश बस गया है ,माता पिता घर में बिलकुल एकाकी हो गए है जो घर बच्चों की खिलखिलाहट से गूंजते थे मानों वीरान से हो गए है। सुख सुविधा है ,समृद्धि है पर अपनों का साथ नहीं है। चेहरों पर उदासी है, अपनेपन को तलाशती ऑंखें… यही आज का कटु यथार्थ है। बड़े मकानों की जगह अब फ्लेट्स ने ले ली है जहाँ नौकरी पेशा लोग सुबह से निकलते है यदि घर में कोई बुजुर्ग है तो अब उसे शाम को ही अपने बच्चों से मिलना हो पाता है ।संवाद की कमी ने जीवन को एकाकी और रसहीन बना दिया है भावों का संप्रेषण अति आवश्यक है जो नहीं हो पा रहा । सब तरफ बेतहाशा भागते दौड़ते लोगों के बीच मनुष्य एकाकीपन के साथ जी रहा है। अनुभूतियों का समन्दर भीतर उमड़ता है पर आवाज कौन सुने किससे कहे बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति यह आज का कटु यथार्थ है। एकाकीपन, अवसाद, गुमसुम रहना इन बच्चों में बढ़ा है अपने भविष्य निर्माण को अपनों से बनी दूरी इसके मूल में है ।वैश्विक परिदृश्य पर अर्थ की प्रधानता के साथ कदम मिलाने को दौड़ते ये बालमन असमय ही मुरझा रहे है ये चिंता का विषय है विचारणीय प्रश्न है।बच्चे, बूढ़े ,युवा सब इस इसका शिकार हो रहे है सबके मूल में बढ़ता एकाकीपन प्रमुख कारण है ; अतः जरुरी है संवाद करें अपनों की और अपने से जुड़े सभी के साथ आत्मीय भाव रखें।
डॉ अनिता वर्मा, सह आचार्य
संस्कृति विकास कालोनी 3
कोटा जंक्शन राजस्थान
324002
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