
Pushp Ranjan
अपनी एक आँख फोड़ लेने से शत्रु की दोनों आँखें फूट जाने का वरदान लेकर शायद कांग्रेस दिल्ली चुनाव में उतरी थी. यदि कांग्रेस का सहयोग होता तो कम से कम 13 सीटें ऐसी थीं, जहाँ बीजेपी के कैंडिडेट का हारना तय था. आम आदमी पार्टी के जो बड़े स्तम्भ ढह गए, उसमें कांग्रेस का बड़ा रोल सामने आया है.
केजरीवाल नई दिल्ली से हारे, तो मनीष सिसोदिया जंगपुरा से, ग्रेटर कैलाश से सौरभ भारद्वाज, मालवीय नगर से सोमनाथ भारती और राजिंदर नगर से दुर्गेश पाठक हारे.
ये सभी सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस को भाजपा की जीत के अंतर से ज़्यादा वोट मिले, जिससे नतीजे प्रभावित हुए। कुल मिलाकर, 70 में से 13 सीटें ऐसी थीं, जहाँ कांग्रेस और आप का संयुक्त वोट शेयर 49.91% था, जो भाजपा के 45.76% से ज़्यादा था।
हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे. ज़मीन पर इस रणनीति पर इनके कार्यकर्ता काम कर रहे थे. जैसे कार्पेट के नीचे बारूद लगा दिया हो. और ये लोग प्रतिपक्ष की एकता की बात करते हैं. पहले हरियाणा में लगभग 12 -13 सीटों पर कांग्रेस की कश्ती डुबोई केजरीवाल ने, अब दिल्ली में कांग्रेस ने केजरी का काम तमाम कर दिया. हरियाणा चुनाव में जो खेल आम आदमी पार्टी ने किये, उसका तो मैं साक्षी रहा हूँ.
कायदे से इन दोनों पार्टियों में से किसी एक को प्रतिपक्ष के गठबंधन से बाहर हो जाना चाहिए. ममता, अखिलेश, तेजस्वी का रोल भी दिल्ली चुनाव में प्रतिपक्ष की एकता की दृष्टि से आगलगाऊ और आत्मघाती रहा है. दिल्ली की आग में इनकी भूमिका घी डालने भर की रही.
अखिलेश तो मिल्कीपुर में अपनी पार्टी की सीट नहीं बचा पाए. ये अहंकारी और इम्मैच्योर लोग हैं. कभी दुरभिसंधि करते हैं, कभी एक दूसरे की चरस बो देते हैं. मोर्चा तो खुल चुका है. अब पछताए क्या होत !
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)