
-धीरेन्द्र राहुल-

क्या सभाओं में उमड़ी भीड़ से कुछ साबित होता है? क्या उनसे पता चलता है कि चुनाव में जीत किस पार्टी की होने जा रही है? अखबार में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे की मुम्बई के शिवाजी पार्क में हुई सभा में सवा लाख लोग थे, वहीं मुख्यमंत्री एकनाथ शिन्दे की आजाद पार्क में हुई सभा में पचास हजार।
खुद उद्धव ठाकरे ने भी अपने बयान में कहा कि मोदी जी की सभा में कुर्सियां खाली पड़ी थी और लोग उठकर जा रहे थे। फिर किस आधार पर ऐसे परिणाम आए ? कुछ तो गड़बड़ है? लोग इसे ईवीएम की जीत बता रहे हैं। अभी वे कुछ नहीं कह सकते लेकिन जनता को मंजूर है तो हमें भी उसका फैसला मंजूर है।
चुनाव में अप्रत्याशित फैसलों को ईवीएम से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन यहां लाडकी बहीण योजना की अनदेखी की जा रही है जो गेम चैंजर साबित हुई है।
मैं पिछले 25 दिन से पुणे में हूं। हमारे यहां जो बाई काम करती है, उसने बताया कि चुनाव के ठीक पहले आसपास रहने वाली सभी महिलाओं के खाते में सात सात हजार रूपए आए। दो महीने की पेडिंग किश्त और दिपावली बोनस के रूप में दो अग्रिम किश्त ने सारा परिदृश्य बदल दिया।
महाराष्ट्र सोना देने वाली मुर्गी है। मुम्बई को देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है। लेकिन जब शिन्दे सरकार ने मध्यप्रदेश की तर्ज पर लाडकी बहीण योजना शुरू की, तब महाराष्ट्र पर साढ़े सात लाख करोड़ का कर्ज था। फिर भी सरकार ने इस योजना के लिए 46 हजार करोड़ का बजट प्रावधान किया।
यह योजाना कितनी बड़ी थी, इसका अंदाज इस बात से लगता है कि महाराष्ट्र के नौ करोड़ 36 लाख वोटरों में से दो करोड़ 36 लाख महिला वोटरों के खाते में यह राशि पहुंचाई गई। यह जीत खाते में पैसा आने से उल्लसित महिलाओं की दिलवाई जीत है।
इसी फैक्टर ने झारखण्ड में भी काम किया। वहां हेमन्त सोरेन सरकार ने ‘मैया सम्मान योजना’ चलाई जिसके तहत 21 से 60 साल की महिलाओं के खाते में एक हजार रूपए महीना डलवाए गए। इसके लिए सरकार ने नौ हजार करोड़ का बजट रखा था। कहने का मतलब यह है कि पैसा बांटो और वोट लो।
इससे पहले मध्यप्रदेश में भी लाडली बहन योजना का चमत्कार देश देख चुका है। इससे पहले छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने पैसा नहीं बांटा तो वहां कांग्रेस हारी। तेलंगाना और कर्नाटक ने पैसा बांटा तो वहां जीतें।
इसलिए एंटीइंकम्बैंसी, जाति, संप्रदाय, महंगाई, बेरोजगारी, व्यक्ति, विचारधारा, सुशासन, माइक्रो मैनेजमेंट सारे मुद्दे गौण हैं।
इस मामले में महाराष्ट्र हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी लेकिन उसे यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि सरकार का हर फैसला राजनीतिक होता है।
कई लोग इस योजना की आलोचना करते मिल जाएंगे लेकिन जिस देश में गरीबी इस कदरी पसरी हुई है कि खाते में आए हजार पन्द्रह सौ रूपए भी महिलाओं को नेमत की तरह लगते हैं।
इससे शहरों की कच्ची बस्तियों और गांवों में महिलाओं की क्रय शक्ति बढ़ेगी तो पैसा मार्केट में आएगा। मितव्ययी और उद्धमशील महिलाएं छोटा मोटा धंधा भी शुरू कर सकती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 46 हजार करोड़ रुपए छोटी मोटी राशि नहीं है, वह सर्कुलेशन में आएगा तो बाजार में भी रौनक आएगी जो नोटबंदी के बाद से भूलुंठित पड़ा है।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मनरेगा की योजना तैयार की थी, तब एक अर्थशास्त्री ने सुझाव दिया था कि यह पैसा सीधा खाते में डलवा दिया जाए ताकि ग्रामीण दूध, फल और सब्जियां खरीद सके क्योंकि उनकी क्रयशक्ति निम्न स्तर पर है।
राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से एक रूपया भेजते हैं, लाभार्थी के हाथ में पन्द्रह पैसा ही पहुंच पाता है। राजीव के समय डिलीवरी का फूलप्रूफ सिस्टम नहीं था।
यह सिस्टम बना उन्हीं की कम्प्यूटर क्रांति और मोदी सरकार के जनधन खातों से।
महाराष्ट्र और झारखंड की सरकारों ने अगस्त में योजना शुरू की और अक्टूबर में तो खातों में पैसे भी ट्रांसफर कर दिए। इस दौरान लाखों महिलाओं के बैंक खाते खोले गए।
वैलफेयर स्टेट में अडानी और अम्बानी तो करोड़ों रुपए के लोन माफ करवा रहे हैं। ऐसे में महिलाओं के खाते में हजार पन्द्रह सौ रूपए से आसमान नहीं टूट पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)