
-सुनील कुमार Sunil Kumar
अमरीका में एक दिलचस्प मुकदमा चल रहा है जो फेसबुक की मालिक कंपनी, मेटा के खिलाफ है कि उसने इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप को खरीदकर बाजार में कारोबारी मुकाबले को भी खत्म किया, और मीडिया पर एकाधिकार बनाया। यह मुकदमा वहां के फेडरल ट्रेड कमीशन (एफटीसी) ने दायर किया है, और उसने कहा है कि जब मेटा इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप का मुकाबला नहीं कर पाई, तो बाजार से मुकाबला खत्म करने के लिए उसने इन कंपनियों को खरीद लिया। अमरीका की जुबान में इसे एंटीट्रस्ट कहा जाता है, और इस पर अगर अदालती फैसला मेटा के खिलाफ हुआ, तो उसे इन कंपनियों को अलग करना पड़ सकता है। लोगों को याद होगा कि उस वक्त फेसबुक के नाम से जानी जाने वाली कंपनी ने दस बरस पहले इन दोनों को खरीदा था, और उस वक्त वह खुद भी मेटा नहीं कहलाती थी, बाद में इन सबको मिलाकर मेटा नाम की कंपनी बनाई गई थी। एफटीसी ने अपने मुकदमे में कहा है कि मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने इस रणनीति पर अमल किया कि मुकाबले से बेहतर है खरीद लेना, जो कंपनियां फेसबुक के लिए खतरा बन सकती थी, उन्हें जुकरबर्ग ने खरीद ही लिया। अमरीका की कुछ और बड़ी कंपनियां, गूगल, और अमेजान भी इसी किस्म के एंटीट्रस्ट मामलों को झेल रही हैं।
अमरीका को देखें तो एक पूरी तरह से पूंजीवादी देश होने के बावजूद वहां की एक संवैधानिक या सरकारी संस्था एफटीसी एकाधिकार के खिलाफ दुनिया के सबसे बड़े कारोबारियों को अदालत में घसीट रही है। इसी तरह एक और दिलचस्प कानून अमरीका में है जिसके तहत वहां का कोई भी मीडिया हाऊस किसी प्रदेश में एक साथ अखबार, टीवी, और रेडियो सब शुरू नहीं कर सकता। इसके पीछे सोच यह है कि किसी एक मालिकाना हक वाली कंपनी का किसी प्रदेश या शहर में समाचार-विचार पर एकाधिकार न हो जाए। भारत में आज न तो ऐसा कोई कानून है, और न ही ऐसी कोई चर्चा भी है कि लोकतंत्र पर इन बातों से खतरा हो सकता है। इस पर एक दूसरी किस्म की बड़ी दिलचस्प रोक अमरीका में है कि एक कंपनी ऐसे टीवी चैनलों की मालिक नहीं हो सकती जिनकी पहुंच 39 फीसदी से अधिक अमरीकी घरों तक हो। इसके पीछे भी बड़ा साफ-साफ मकसद है कि एक ब्रॉडकास्टर का कब्जा हर दिल-दिमाग तक न हो जाए। वहां का कानून कहता है कि एक कंपनी किसी एक इलाके के चार सबसे बड़े टीवी स्टेशनों में से एक से अधिक की मालिक नहीं हो सकती। इससे दर्शकों के बीच विचारों की विविधता की गारंटी रहती है। रेडियो स्टेशनों के बारे में भी इलाकों को लेकर ऐसे ही कुछ रोक हैं।
शायद लोगों को याद हो कि उन्होंने अपने बचपन के दिनों में व्यापार नाम का एक खेल खेला हो, जिसे कि अंग्रेजी में मोनोपोली नाम से जाना जाता है। इस खेल में यह रहता था कि खिलाड़ी अपने पास की रकम से रेलवे खरीद सकते थे, या एयरलाईंस, या जहाज कंपनी खरीद सकते थे। जब एक ही किस्म के कारोबार में लोग एक से अधिक धंधे खरीदते थे, तो उनके सामने से गुजरने वाले लोगों से वे उसी अनुपात में अधिक उगाही करते थे। कुल मिलाकर यह खेल बच्चों के दिमाग में यह बैठाते चलता था कि व्यापार किस तरह एकाधिकार से अधिक तेजी से बढ़ सकता है। बचपन के बाद बड़े होने पर भी लोग इस खेल को खेलते थे, और शायद अभी भी खेलते होंगे। यह खेल जाहिर है कि कारोबारी दुनिया के तौर-तरीकों पर बनाया गया था, और इसके अंग्रेजी संस्करण का नाम मोनोपोली भी एकाधिकार पर ही रखा गया था।
भारत में इस खेल, और असल जिंदगी में कारोबारी अधिकार को लेकर कोई भी चर्चा नहीं होती। कोई एक कंपनी एयरपोर्ट, बंदरगाह, रेलवे स्टेशन ले सकती है, खदानों पर एकाधिकार कर सकती है, वह मीडिया भी खरीद सकती है, और टीवी चैनलों के साथ-साथ समाचार एजेंसी भी खरीद सकती है, बहुत से अखबार और डिजिटल मीडिया एक साथ खरीदे जा सकते हैं। टीवी और एफएम बैंड के स्टेशनों को लिया जा सकता है, और भारत में ऐसी कोई भी सुनाई नहीं पड़ती कि दर्शक, श्रोता, और पाठक के बाजार में किसी एक कारोबारी की मोनोपोली कब और कहां पर, कैसे रोक देनी चाहिए। भारत में ऐसी कोई सोच या चर्चा भी नहीं है। यह बात कुछ हैरान इसलिए करती है कि भारत अपने आपको उदारवादी अर्थव्यवस्था तो साबित करने में लगे रहता है, लेकिन अपने आपको पूंजीवादी व्यवस्था कहलाने से बचता है, क्योंकि वोटरों के बीच इससे अच्छी छवि नहीं बनती। दूसरी तरफ, जो जाहिर तौर पर, खुलकर अपने आपको पूंजीवादी व्यवस्था कहता है, उस अमरीका में कारोबारी एकाधिकार के खिलाफ कड़े कानून भी हैं, और मेटा के खिलाफ वहां चल रहे एंटीट्रस्ट मामले को लेकर लोग कुछ हैरान भी हैं कि हाल के बरसों में तो इसके मालिक मार्क जुकरबर्ग ने खुलकर ट्रम्प का साथ दिया है, और इसके बावजूद वहां की एक संवैधानिक संस्था एफटीसी अदालत में मेटा के खिलाफ मुकदमा चला रही है।
लोगों को याद होगा कि गूगल के अपने सर्च इंजन को लेकर कायम किए गए एकाधिकार के खिलाफ भी एंटीट्रस्ट मामला चल रहा है, और अमरीका से परे भी योरप में कई टेक्नॉलॉजी कंपनियां एकाधिकार के खिलाफ मुकदमे झेल रही हैं। दुनिया के भारत सरीखे और भी कुछ देश होंगे जहां पर कारोबार और कारोबारी बहुत बड़े हो गए हैं, लेकिन न तो देश के कानून में एकाधिकार के खिलाफ कोई व्यवस्था है, और न ही लोगों के बीच ऐसी किसी जरूरत की कोई चर्चा भी सुनाई पड़ती है। अब वक्त आ गया है कि सरकार या राजनीतिक दल चाहे जो सोचते हों, जनता के बीच से एकाधिकार के खिलाफ बात उठनी चाहिए। खासकर अखबार, टीवी और डिजिटल मीडिया जैसे माध्यमों पर एकाधिकार से लोकतंत्र पर आने वाली आंच पर तो जनता को फिक्र करनी चाहिए।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)