
-डॉ अपर्णा पाण्डेय

डॉ रामावतार मेघवाल ‘सागर’ कोटा महानगर के उन रचनाकारों में शुमार हो चुके हैं, जिन्होंने मात्र अपने चार ग़ज़ल संग्रहों से पाठकों के दिलों में स्थान बना लिया है। किसी भी व्यक्ति का वास्तविक परिचय उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य हैं ।
“प्रतिनिधि ग़ज़लें” आपका बिजनौर से 2024 में प्रकाशित नवीन ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें कुल 88 गजलें संकलित हैं। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से ये प्रभावी और हृदय स्पर्शी है।
अपने वक्तव्य में डाक्टर गिरिराज शरण अग्रवाल जी लिखते हैं- हिंदी में ग़ज़ल विधा उर्दू के रास्ते आई है। हिंदी में इसके व्याकरण और शिल्प की पृष्ठभूमि नहीं है, परंतु दोनों भाषाओं में छंद की लय और संगीत एक ही हैं । बहर (लय),रदीफ़ (पंक्ति के अंत में समान शब्द), क़ाफिया (तुकबंदी) है।
आत्मकथ्य में ‘सागर’ लिखते हैं कि ग़ज़ल की तरफ़ मेरा झुकाव 2010 में हुआ, तब से लेखन अनवरत चलता रहा। हिंदी के प्रथम गज़लकार दुष्यंत कुमार जी के नाम से कौन अपरिचित है? हिंदी में भी छायावादी ग़ज़लें, शमशेर बहादुर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन शास्त्री जैसे साहित्यकारों को पढ़ा ,तो लगा कि हिंदी में भी ग़ज़ल की सुव्यवस्थित परंपरा है, जिसमें अरबी-फारसी के शिल्प ग़ज़ल को लेकर भाषा में लिखने का सफल प्रयास किया गया है। सल्तनत काल में साहित्य का आदान-प्रदान हुआ और ग़ज़ल भारतीय परिवेश में हिंदी ग़ज़ल के नाम से जानी जाने लगी। अनेक साझा संकलनों और ई-पत्र-पत्रिकाओं में आपकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं।
अशोक रावत जी जो अधिकांशतः फेसबुक पर ग़ज़लें लिखते हैं और युवा गजलकारों को उत्कृष्ट लेखन के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं सागर जी के विषय में लिखते हैं–
“क्या हिंदी भाषा में ग़ज़ल, बहर, कहन और फ़िक्र के साथ कही जा सकती है ?” निश्चय ही सागर जी की गज़लें इस दृष्टि से बेहद ख़ूबसूरत बन पड़ी हैं l
संवेदनाहीन समाज की पीड़ा लेखक को वेदना से भर देती है और वह लिखते हैं; आज संपूर्ण विश्व मानव बाजार बन गया है l यहां हर वस्तु बिकाऊ है l प्रेम जैसे कोमल भावों के लिए कोई स्थान नहीं ! उनकी ग़ज़ल की पंक्ति देखिये-
“शर्तों पर प्यार और यह किश्तें उधार की। सौगात समझिए ,इसे वैश्विक बयार की।।”पृष्ठ संख्या 10
कलयुग में कल (पुर्जे) इस तरह मनुष्य पर हावी हो गए हैं कि मनुष्य अपना सुख -चैन (कल) भूल गया है -”
“तकनीक जिंदगी में यूं शामिल हुई है आज, दिल पर हुई हैं बोझ रातें करार की।।”पृष्ठ संख्या 10
भारतीय संस्कारों को ,मर्यादाओं को ताक पर रखकर पश्चिम की हवा से प्रभावित हमारे युवा आज कैसे बिना किसी की परवाह किए साथ रह रहे हैं ;यह पीड़ा शायर के मन को बहुत दुखी करती है और वह लिखते हैं –
यह कैसा समाज हम बना रहे हैं ,जहां विवाह का पवित्र रिश्ता नहीं!”
“यूं ही रहेंगे साथ में, रिश्ता कोई नहीं ,
पीढ़ी नई है आज ये लिव-इन विचार की!!”पृष्ठ संख्या 10
पहले जहां बात -चीत दो मित्रों के बीच हुआ करती थी , वहीं अब सोशल मीडिया, फेसबुक एक ऐसा माध्यम हो गया है जहां लोग समूह के रूप में जुड़ते हैं अपना मंतव्य व्यक्त करते हैं और कभी-कभी तो दूसरे की कही बातों का अनुचित अर्थ निकालकर उसे मानसिक यंत्रणा भी देते हैं । दरअसल एक संवेदनशील व्यक्ति ही इन बातों को इतनी गहराई से समझ सकता है। लेखक होने के नाते आपको कई बार समाज की कुछ बातें बहुत चुभ जाती हैं जो हृदय को पीड़ा से भर देती हैं और तब वही पीड़ा शब्दों के रूप में कागज पर उतर आती है –
“सागर जी भर के खेलिए जज्बात से यहां,
दुनिया यह फेसबुक की है यारों के यार की।“ पृष्ठ संख्या 11
आधुनिकता के नाम पर मनुष्य भारतीय परिवेश से ,संस्कारों से ,चिंतन से दूर होता जा रहा है मशीनों का गुलाम होता जाता है ऐसे में इस नए दौर में सबको खुश रखना बहुत मुश्किल कार्य है इस संदर्भ में आचार्य इच्छाराम द्विवेदी “प्रणव “की ग़ज़ल सटीक बैठती है –
“बा-अदब घर में घुसा है ,बे-आज़ाद है ।
ये हमारे वक्त की ,सबसे बड़ी ईजाद है।”
समाज में दिन-प्रतिदिन बढ़ते अपराधों की संख्या से गजलकार बहुत परेशां है
“निकली नहीं है फिर आज भी गौरैया बाग में,
बस्ती के बीच में यूं भूखे बाज देखकर ।”पृष्ठ संख्या 104
शहरों में बढ़ती चका-चौंध के पीछे जो भयावह अंधेरा है ;
अपराधों की बाढ़ है अमानवीयता है, उस पर कटाक्ष करते यह पंक्तियां देखिए –
“ये लाल पीली लाइटें है चमक रही हैं बे-हिसाब
ये रोशनी है या कहीं भटकती-सी सराब है ।” (पृष्ठ संख्या 103)
आज शहरों में बुज़ुर्ग बहुत अकेले हैं l अकेलेपन की तकलीफ को झेलते बुज़ुर्गों की पीड़ा व्यक्त करती हुई पंक्तियाँ देखिए –
वो जिनके कार-कोठी है, पढ़ें बच्चे विदेशों में,
महीने-भर से बिस्तर में पड़ा बुड्ढा फिसल कोई l
गांव में आत्मीयता भरा माहौल, जहां कोई चाचा, ताऊ, भैया होता था वहीं आधुनिकता के इस माहौल में सारे नाते-रिश्ते न जाने कहां काफूर हो गए हैं l बिल्डिंग तो बहुत खूबसूरत है, परंतु उस में रहने वाले लोग प्रेम से, दया से, आत्मीयता से, करुणा से शून्य हैं l
दिख रही हैं आज जो ऊंची खड़ी सी बिल्डिंगें,
खेत कितने खा गई हैं यह बड़ी सी बिल्डिंगें l
भाई-चारा आपसी व्यवहार भी सब खो गया,
अब सिसकने लग रही हैं ये जड़ी-सी बिल्डिंगें l
ये महानगरों की इक पहचान बनकर रह गई,
जुड़ रही हैं आज ‘सागर’ एक लड़ी-सी बिल्डिंगें l
कथनी और करनी में भिन्नता ही वर्तमान समय का सच है-
नेताओं के दोहरे आचरण पर करारा व्यंग्य करती पंक्तियां –
आज तो वो कर रहे चिंतन शिविर होटल में है,
कल छपेगा एक फोटू बस्ती के दालान का l पेज 95
इस दौर की तरक्की भी मत पूछिए,
जब सहमा हुआ है आदमी ही आदमी के साथ l पेज नंबर 84
कुछ तो दुनियादारी रखना,
सबसे ही मत यारी रखना l
दुख में काम यही आता है,
कीरत जैसा बारी रखना l पेज नंबर 78
ग़ज़ल की यह पंक्तियां हमें उस ऐतिहासिक घटना की ओर ले जाती हैं, जहां पन्नाधाय जैसी देशभक्त महिला और कीरत बारी जैसे सेवक के साथ मिलकर उदय सिंह के प्राणों की रक्षा की l आज के स्वार्थ परक समाज में हमें ऐसे नि:स्वार्थ सेवक और मित्र कहां मिलते हैं l
आज जैसे-जैसे समाज में समृद्धि बढ़ी है, वैसे-वैसे ही अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई और अधिक गहरी हो गई है, जहाँ सामान्य दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आम आदमी को सुबह से शाम तक मशीन बन कर खटना पड़ता है l
सुबह से शाम तक हर वक्त रहते काम-धंधे पर,
नहीं होता है ब्याजों का चुकारा क्या करें साहिब l
नरेगा में तो अक्सर नाम होता है अमीरों का,
मगर होता नहीं है बस हमारा क्या करें साहिब l
रूमानियत भरी ग़ज़ल दिल को सुकूं देती है –
बेबसी के साथ रहना और जीना था मुझे,
बस तेरी क्या याद आई हम कुंवारे लौट आए l
लौटना तेरा शहर में इस कदर भाया हमें,
लौट आए गुलमोहर से दिन हमारे लौट आए l
लाख अरमाँ, चाहतें हैं, उल्फ़त, मुहब्बत आपकी है,
इस भरोसे पर ही तो हम दिल के मारे लौट आए l
याद ‘सागर’ को हमारी आए के ना आए फिर भी,
याद उसने ही किया है हम किनारे लौट आए l पेज नंबर 53
आंसू छपे किताब में अखबार हो गए,
लिख-लिख के दर्द अपना कलमकार हो गए l
जो थे शरीफ लोग, गुनाहगार हो गए,
लोग देख लो दरिंदे भी सरकार हो गए l पेज नंबर 17
जहां देश में भाषा को लेकर विवाद चलता ही रहता है, वहीं ग़ज़लकार यह कह कर अपना परिचय देते हैं कि- हिंदी मेरी पहचान है। इस जैसी मीठी जुबां कोई नहीं l मातृभाषा हिंदी के प्रति शायर के विचार बहुत उम्दा हैं –
यही है जंगे आजादी में जन-मन की अभिव्यक्ति,
वतन पर जाँ फिदा इसकी यही कुर्बान है हिंदी l
बहुत मुश्किल है होना इसके जैसा दूसरा दिलबर,
यही ईश्वर, यही मौला, यही भगवान है हिंदी l पेज नंबर 36
“है अपनी आन ,अपनी शान,अपना मान है हिंदी ।
हमारी जान हिंदी और ये पहचान है हिंदी।
अन्तत:कहना चाहूंगी,यह ग़ज़ल संग्रह हृदयस्पर्शी है , संग्रहणीय है और है अपने मंतव्य को पाठकों तक पहुंचाने में सक्षम।
आप राजकीय कला महाविद्यालय,कोटा राजस्थान में हिंदी विभाग में सह- आचार्य के रूप में कार्यरत हैं और अनेक पुरस्कारों से अलंकृत हैं । आप सदैव उत्कृष्ट लेखन कार्य करते रहें यही शुभकामना है l
आपका यह ग़ज़ल संग्रह ख़ूब प्रतिष्ठित होगा, विद्वानों के बीच समादृत होगा,ऐसा मेरा विचार है l आपकी लेखनी प्रथित यश हो ।
पुस्तक: प्रतिनिधि ग़ज़लें
शायर: डॉ. रामावतार मेघवाल ‘सागर’
प्रकाशक: हिंदी साहित्य निकेतन
16 साहित्य विहार
बिजनौर, उ. प्र. 246701
संस्करण: प्रथम 2024
मूल्य: 250 रूपए
समीक्षक
डॉ अपर्णा पाण्डेय
इन्दिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र,
भारतीय उच्चायोग, ढाका, बांग्लादेश
आधुनिक भाषा इंस्टीट्यूट ढाका विश्वविद्यालय
पूर्व सांस्कृतिक प्रतिनिधि एवं शिक्षिका
2013-2017
बहुत-बहुत बधाई मैम