
-धीरेन्द्र राहुल-

महान तबलावादक उस्ताद जाकिर हुसैन ने सहायक वाद्य तबले को कहां से कहां पहुंचा दिया। आज सभी ओर उनके अवदान की चर्चा है। लेकिन आज तबले के बहाने मुझे अपने गुरू मिश्रीलाल उस्ताद की बहुत याद आ रही है।
मेरे ताऊ हीरालाल गोदारा और परमानन्द जी पानवाला के दस बारह दोस्तों में से वे एक थे। ये सारे मित्र नियमित रूप मेरे ताऊ की दुकान पर आते रहते थे। इसलिए मेरा भी मिश्रीलाल उस्ताद से अच्छा परिचय और संवाद था।
भानपुरा में रेवा नदी के किनारे इन्द्रगढ़ में नाथजी महाराज का आश्रम था।
वहां रातभर संगीत की महफिलें होती थी, जिसमें भांग छनती थी, बीड़ियां पी जाती थी, चाय और चिलम के दौर चलते थे। नींद आने पर वहीं पर सो भी जाते थे।
उसमें परमान्द जी हारमोनियम तो मिश्रीलाल उस्ताद तबले पर संगत देते थे।
एक दिन मुझे मित्रवर हरीश दुआ ( अब स्वामी हर्षानन्द ) से पता चला कि सुरेन्द्र चौरड़िया जिन्हें प्यार से शंभूजी कहते थे। अपना तबला बेचना चाहते हैं। मैंने उनसे संपर्क किया और मात्र 80 रूपए में तबले की जोड़ी खरीदकर घर ले आया।
सोचा था जिन्दगी बेसुर हो रही है, तबले से शायद कुछ लय में आ जाए। लेकिन तबला घर में आते ही कोहराम मच गया। मेरे शिक्षक माता पिता बहुत नाराज हुए क्योंकि मैं लगातार फैल हो रहा था। रामपुरा में बीएससी में फैल हुआ तो भानपुरा आया। यहां फिर बीए में भी फैल हो गया।
मैं पढ़ता खूब था और ‘नई दुनिया’ के ‘पत्र संपादक के नाम’ कालम में छपने भी लगा था। मुझे लगता था कि बीए की डिग्री लेने से क्या हो जाएगा? इसलिए कोर्स की किताबें छोड़कर सब कुछ पढ़ता था। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’, ‘पहल’, ‘पश्चंति’, ‘आलोचना’ जैसी लघु पत्रिकाएं और मंगवा लेता। मेरी यह खुमारी उस समय उतरी जब मैं मन्दसौर से प्रकाशित दैनिक ‘दशपुर टाइम्स’ का प्रवेशांक लेकर राजेन्द्र माथुर साहब से मिलने इंदौर में दैनिक ‘नई दुनिया’ के दफ्तर जा पहुंचा। इसकी कहानी फिर कभी विस्तार से।
अभी तो बात मिश्रीलाल उस्ताद कीं।
मैं तबले की जोड़ी लेकर उनके घर पहुंचा। उन्हें रूपया नारियल भेंटकर गंडा बंधन करवा कर तबला सीखना शुरू किया।
यहां एक बात के बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं था कि गुरुदक्षिणा कैसे अदा करूंगा। मैं बेरोजगार था और उस्ताद धुर गरीब थे। उनके घर में मिट्टी के लिपेपुते फर्श पर बिछाने के लिए जीर्ण-शीर्ण चटाई थी। उस्ताद जी की पत्नी और बेटी मजदूरी करती थी। उसी से जो मिलता था तो चूल्हा जलता था। मेरे गण्डाबंधन के बाद शायद परिवार को भी आस बंधी थी कि चूल्हा ढंग से जलने लगे।
तीसरे चौथे दिन गुरू मां ने मुझे झोला पकड़ाते हुए कहा कि दो किलो आटा ला देना।
वह तो मैंने लेकर दे दिया। अगले दिन दाल तो उसके अगले आलू ले आने की कहा गया। इधर मैं बेरोजगार, जेब में पैसे नहीं। घर वालों से मांगे तो वे और नाराज हो गए। बोले ‘तबले के लिए तो एक पैसा नहीं मिलेगा।’
खैर, एक दिन अपनी खाली जेब का हवाला देते हुए मैंने उस्ताद जी से माफी मांग लीं। तबला घर ले आया। जिसे घरवालों ने मेरी अनुपस्थिति में किसी को बेच दिया।
मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि तबला सीखने के लिए घरवालों का साथ जरूरी है।
जाकिर हुसैन जब पैदा हुए
तो गोद में आते ही उनके पिता अल्लारख्खा खां ने तबला बजाकर उसकी सांसों में थाप घोल दी थी। अब आप बताए वे एवरेस्ट पर कैसे नहीं पहुंचते?
लेकिन दूसरी तरफ मुझे बांसुरीवादक पं. शिवप्रसाद चौरसिया का भी संस्मरण याद आता है। युवावस्था में वे बाजार से बांसुरी खरीद लाए। एक दिन वे अपने कमरे में बैठकर बांसुरी बजा रहे थे। तो पहलवानी के शौकिन पिता कमरे में आए। बांसुरी छीनकर तोड़ दी और यह कहते हुए थप्पड़ जड़ दिया कि’ क्या मिरासियों जैसे शौक पाल रखे हैं, कल से अखाड़े में जा और दण्ड पेल।’
धुन के पक्के शिवप्रसाद ने बांसुरी नहीं छोड़ी। नई बांसुरी खरीदी और संगम के तट पर जाकर बजाने लगे। घरवालों ने साथ नहीं दिया, फिर भी बांसुरी सम्राट बनने से उन्हें भी कौन रोक पाया?
घरवालों को दोष देना फिजूल है। दरअसल आपका संकल्प, आपका जुनून ही आपको उस्ताद बनता है। घरवाले तो सिर्फ•••।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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