उच्च शिक्षा की उखड़ती जड़ें

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-देशबन्धु में संपादकीय 

केरल विधानसभा ने बीते मंगलवार 21 जनवरी को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) के मसौदा नियमों को वापस लेने का आग्रह किया है। यूजीसी के नए मसौदा नियमों की आलोचना कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों ने भी की है। इस महीने की शुरुआत में तमिलनाडु सरकार ने इसकी आलोचना की थी। राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री गोवी चेजियान ने यूजीसी नियमों के मसौदे को तानाशाही बताते हुए कहा था कि अगर केंद्र सरकार इसे वापस नहीं लेती है तो डीएमके सरकार कानून का सहारा लेगी और इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन भी करेगी। वहीं केरल में न केवल सत्तारुढ़ सीपीआई (एम) बल्कि विपक्षी कांग्रेस भी इस फैसले में साथ है। केरल में सरकार और विपक्ष दोनों का मानना है कि यह उच्च शिक्षा में संघ परिवार के एजेंडे का हिस्सा है।

मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने अपने प्रस्ताव में यूजीसी मसौदा नियमों को उच्च शिक्षा क्षेत्र के व्यवसायीकरण के लिए एक कदम मात्र बताया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि बदलते नियमों को उच्च शिक्षा को धार्मिक और सांप्रदायिक विचारों का प्रचार करने वालों के चंगुल में फसाने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। प्रस्ताव में कहा गया है, ‘विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों के कामकाज के लिए लगभग 80 प्रतिशत पैसा राज्य सरकारों द्वारा खर्च किया जाता है। विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता को बनाए रखने में राज्य सरकारों की प्रमुख भूमिका रहती है। केरल विधानसभा का मानना है कि केंद्र सरकार और यूजीसी का मकसद राज्य सरकारों को कुलपतियों सहित अन्य नियुक्तियों से पूरी तरह दूर रखना है। यह अलोकतांत्रिक है और इसे दुरुस्त करने की ज़रूरत है।

गौरतलब है कि हाल ही में केंद्र सरकार ने यूजीसी के नए नियमों का प्रारूप जारी किया गया, जिसमें ऊपरी तौर पर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि ये फ़ैसले उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और विश्वविद्यालयों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए किये जा रहे हैं। लेकिन असल में इससे उच्च शिक्षा में बड़ी सेंध लगती नजर आ रही है। गौरतलब है कि यूजीसी के नए नियम राज्यों में राज्यपालों को कुलपतियों की नियुक्ति के लिए व्यापक अधिकार दिया गया है। साथ ही कुलपति का पद शिक्षाविदों तक सीमित नहीं रखकर इसे उद्योग विशेषज्ञों और सार्वजनिक क्षेत्र के दिग्गजों के लिए भी खोल दिया गया है। मतलब अब अगर कोई उद्योगपति चाहे तो वह किसी विश्वविद्यालय का कुलपति बन सकता है, भले उसके पास शैक्षणिक योग्यता और अनुभव न हों। उच्च शिक्षा के साथ इतना भद्दा खिलवाड़ आजादी के बाद से अब तक नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी इसे भी मुमकिन बना रहे हैं।

इस फ़ैसले पर गैर भाजपाई दल और सरकारें तो फ़िक्रमंद दिख ही रहे हैं, भाजपा की सहयोगी जदयू ने भी इस पर आपत्ति दर्ज की है। जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि हमें कुलपतियों की नियुक्ति में निर्वाचित सरकारों की भूमिका सीमित करने को लेकर चिंता है। यह उच्च शिक्षा के लिए राज्य सरकार के रोड मैप को प्रभावित करेगा। भाजपा की एक अन्य सहयोगी लोजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अरविंद कुमार वाजपेयी ने कहा कि इस मामले पर विचार-विमर्श करना संसद का विशेषाधिकार है।

यूजीसी ने प्रकाशनों की मानक सूची को भी बंद करने का फैसला लिया है। बता दें कि विश्वविद्यालय और डिग्री कॉलेज के प्राध्यापकों की पदोन्नति के लिए उत्कृष्ट पत्रिकाओं और जर्नल में शोध-पत्र किताब और लेख प्रकाशित होना चाहिए। इसके लिए यूजीसी की मानक सूची से उन पत्रिकाओं की पहचान करने में मदद मिलती थी, जो विश्वसनीय हैं और शोधपत्र प्रकाशित करने के लिए कुछ गुणवत्ता मानकों को पूरा करती हैं। दरअसल पहले कुछ कीमत अदा करके फर्जी पत्रिकाओं में शोध आलेख प्रकाशित करवा लिए जाते थे, जिस पर रोक लगाने के लिए 2018 में यूजीसी-कंसोर्टियम फॉर एकेडमिक्स एंड रिसर्च एथिक्स यानी यूजीसी केयर शुरु किया गया, जो स्कोप्स और वेब ऑफ साइंस जैसे विश्व स्तर पर स्वीकृत डेटाबेस में अनुक्रमित पत्रिकाओं की एक संदर्भ सूची है। विशेषज्ञों द्वारा गहन मूल्यांकन के बाद भारतीय पत्रिकाओं को सूची में शामिल किया गया।लेकिन अब प्रकाशनों के चयन का फ़ैसला विश्वविद्यालयों पर छोड़ दिया गया है। शिक्षाविदों का मानना है कि इससे फिर से फर्जी और स्तरहीन प्रकाशनों के पनपने के लिए जमीन तैयार होगी।

नये मसौदा नियमों में पदोन्नति के लिए प्रकाशित पेपर की संख्या भी कम कर दी गई है। अब तक एक सहायक प्रोफेसर को पदोन्नति के लिए सात पेपर प्रकाशित करने होते हैं, जबकि एक एसोसिएट प्रोफेसर को 10 पेपर प्रकाशित करने होते हैं। लेकिन नए मसौदे में पदोन्नति के लिए एक सहायक प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर द्वारा तीन पेपर प्रकाशित करने की आवश्यकता निर्धारित की गई है। यानी यूजीसी ने प्रकाशनों की गुणवत्ता के साथ-साथ, शोध कार्यों की गुणवत्ता को भी दांव पर लगा दिया है। वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा के मामले में भारत की साख पहले ही कम होती जा रही थी, अब शोध और प्रकाशन के मामले में भारतीय विश्वविद्यालयों की छवि और ख़राब हो जायेगी।

नरेन्द्र मोदी भारत को शोध, शिक्षण और ज्ञान का केंद्र बनाने का दावा करते हैं। तीसरी बार कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय के नये परिसर का जब उद्घाटन किया था, तब भारत में ज्ञान की महान परंपरा की बातें की थीं। लेकिन उनके पिछले दो कार्यकालों में भारत में उच्च शिक्षा केंद्र विवादों में पड़े। जेएनयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विवि, हैदराबाद विवि, जादवपुर विवि, ऐसे कई ख्यातनाम विश्वविद्यालयों में अवांछित विवाद खड़े हुए। आईआईटी जैसे संस्थानों में बैठे लोगों ने कई बार अतार्किक बयान दिए। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक संघ की हिंदुत्ववादी सोच थोपने की कोशिश दिखाई दी और अब यूजीसी के नए मसौदे से ज़ाहिर हो रहा है कि शिक्षा के नाम पर राजनैतिक, कारोबारी फ़ायदे के लिए सरकार जमीन तलाश रही है। इसमें कुछ लोगों के पैर तो जम जाएंगे, लेकिन उच्च शिक्षा की जड़ें उखड़ जाएंगी।

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