
-धीरेन्द्र राहुल-

एक वक्त था जब हमारे नालंदा, तक्षशिला और विक्रम शिला विश्वविद्यालयों में दुनिया के दूसरे देशों के विद्यार्थी पढ़ने आते थे। लेकिन कालान्तर में इन्हें उन लोगों ने उजाड़ा जो इल्म हासिल करने के लिए चीन जाने की बात करते थे।
इन्हीं विश्वविद्यालयों की वजह से भारत को ‘विश्वगुरु’ कहा जाता था। जिसके भटीके
हमें अब तक आते रहते हैं।
अंग्रेजों के आने के बाद में
यह हुआ कि भारत के विद्यार्थी पढ़ने के लिए विदेश जाने लगे। हमारे कई राष्ट्रीय नेता विदेश में पढ़ें। उन्होंने वहां स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की कीमत जानी। और देश लौटकर उन्हीं अंग्रेजों से देश को दासता से मुक्त करने में जुट गए। यानी लोहे ने लोहे को काटा। देश आजाद हुआ तो उन्होंने जेएनयू, आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थान खड़े किए।
भारत में आज 1000 विश्वविद्यालय हैं लेकिन विश्व के 100 पहले उच्चशिक्षा संस्थानों में एक भी नहीं। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के मामले में हम एशिया में जापान, यूएई, चीन, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया के बाद सातवें नंबर पर हैं जबकि विश्व में 80 वें नंबर पर हैं।
लेकिन इसके बावजूद हमारे इंजीनियर, साइंटिस्ट, डाॅक्टर सारी दुनिया में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
हमारे यहां मेडिकल कॉलेजों की कमी थी तो भारत के लाखों छात्र विदेशी मेडिकल कालेजों में पढ़ने जा रहे थे। इससे देश का धन भी विदेशों में जा रहा था। अब देश में 685 मेडिकल कॉलेजों हो गए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाहर जाने वाले छात्रों की संख्या में भी कमी देखने को मिलेगी।
एक बात समझ से परे है कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत देश में सन् 1991 में हुई लेकिन उच्चशिक्षा के वैश्वीकरण या अन्तरराष्ट्रीय करण की शुरुआत होने में तीस साल का लंबा समय क्यों लग गया ?
मोदी सरकार ने 2020 में नई शिक्षा नीति के मसौदे में शिक्षा के अन्तरराष्ट्रीयकरण की बात कही। उसके बाद नवम्बर 2023 में ऑस्ट्रेलिया के दो विश्वविद्यालय डिकीन और वोलोंगोग ने गुजरात के गांधीनगर में अपने कैम्पस शुरू किए। लेकिन ये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नोर्म्स पर नहीं हैं।
ऐसे में दुनिया के 100 सबसे अच्छे शिक्षा संस्थानों में शामिल ब्रिटेन के साउथैम्प्टन यूनिवर्सिटी का नई दिल्ली एनसीआर में अपना कैम्पस खोलने का निर्णय स्वागत योग्य है। इसका आशय पत्र जारी कर दिया गया है। यह विश्वविद्यालय अगले साल तक एडमिशन शुरू कर सकता है। भारतीय कैम्पस में दी गई डिग्री की मान्यता और वरीयता वहीं रहेंगी, जैसी जैसी ब्रिटेन में हैं। यह यूनिवर्सिटी अपने साथ विदेशी फैकल्टी, विशाल लायब्रेरी और लैब साथ लाएंगी। इनके आने से रिसर्च को बढ़ावा मिलेगा, नाॅलेज का एक्सचेंज होगा और वैश्विक सहयोग के लिए इकोसिस्टम तैयार होगा।
सबसे बड़ा फायदा भारत के उन छात्रों को होगा जो 30 लाख खर्च कर ब्रिटेन पढ़ने नहीं जा सकते, वे भारत में ही (पन्द्रह लाख का शैक्षिक लोन लेकर) अपनी स्टडी पूरी कर सकेंगे।
ब्रिटेन में लंदन से 130 किलोमीटर दूर समुद्र किनारे साउथैम्प्टन एक विश्वविद्यालय शहर है, जिसकी आबादी ढाई लाख के आसपास है, जिसमें छात्रों की संख्या 37,500 के आसपास है। इसके भवनों देखकर लगता है कि इसका इतिहास बहुत पुराना है। आने वाले दिनों में पन्द्रह- बीस विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस खोल सकते हैं। ऐसा अधिकारिक सूत्रों का कहना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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