
-सुनील कुमार Sunil Kumar
बीते जमाने के एक बड़े चर्चित और प्रमुख फिल्म-पत्रकार के फेसबुक पेज पर आज सुबह उनकी दो बच्चों के साथ की एक तस्वीर दिखाई दी, जिसमें एक छोटा लडक़ा एक टी-शर्ट पहने हुए है जिस पर एक लाईन छपी है, नेटफ्लिक्स, एंड अवॉइड पीपुल। मतलब यह कि नेटफ्लिक्स को देखो और इंसानों से परहेज करो। बाद में इस नारे को लेकर जब टी-शर्ट बाजार को ऑनलाईन देखा गया, तो समझ आया कि यह टी-शर्ट आम है, और मजाकिया अंदाज में लिखा गया यह स्लोगन लोगों को इंसानों से दूर रहकर फोन या टीवी की स्क्रीन में डूब जाने की सलाह देता है। कहने के लिए तो यह एक आम बाजारू प्रचार है, लेकिन जो लोग सचमुच ही किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म, किसी सोशल मीडिया या किसी डिजिटल एप्लीकेशन के शिकार होकर उसमें डूब जाते हैं, उनका क्या हाल होता है?
पिछले कुछ दिनों से हर सुबह बीबीसी वर्ल्ड न्यूज के जो पॉडकास्ट मैं सुनता हूं, उसमें उन्हीं के किसी एक दूसरे प्रोग्राम का प्रचार भी सुनाई पड़ता है जो कहता है कि दुनिया में आज सबसे बड़ा डिजाइनर नशा डिजिटल शक्ल में है, और उन्हें बनाने वाले लोग जैसा चाहते हैं, इस नशे के शिकार लोग ठीक वैसा ही करते हैं। इस प्रोमो के शब्द कुछ आगे-पीछे हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यही है कि इंसान के गढ़े हुए सबसे घातक और असरदार नशे के सामान प्रयोगशाला में बनाया गया नशा नहीं है, बल्कि वह डिजिटल एप्लीकेशन या प्रोग्राम हैं जो कि लोगों को बांध लेते हैं। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही पूना में एक मोबाइल गेम खेलते हुए 14 बरस का एक लडक़ा उस खेल की चुनौती को मंजूर करके 14वीं मंजिल से कूद गया था, और नीचे जमीन से टकराते ही उसकी मौत हो गई थी।
लोगों को याद होगा कि ऐसी घातक चुनौतियां पेश करने वाले कुछ खेलों को हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में रोक दिया गया है, और सरकार ने टिक-टॉक जैसे कुछ और बहुत लोकप्रिय मोबाइल ऐप भी कुछ दूसरी वजहों से यहां रोक दिए हैं, क्योंकि उन पर चीन की तरफ से जासूसी करने का शक पूरी दुनिया में किया जाता है। अमरीका में भी यह एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है कि टिक-टॉक को मार दिया जाए, या छोड़ दिया जाए?
हम इन दिनों मोबाइल फोन के कई तरह के प्लेटफॉर्म, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम को देखते हैं, तो लोग वहां अपनी रील बनाकर डालते हुए बावले से हो जाते हैं। कोई किसी इंजन की छत पर चढक़र मोबाइल फोन से एक खतरनाक रिकॉर्डिंग करते हुए बिजली के तारों में जलकर मर जाते हैं, कुछ लोग कारों सहित नदी में गिरकर डूब जाते हैं, और कई लोग सडक़ों पर खतरनाक ड्राइविंग के वीडियो की लाईव स्ट्रीमिंग करते हुए मारे जाते हैं।
दस-बीस बरस तक इनमें से कोई भी शौक लोगों के पास नहीं था, मोबाइल फोन आ भी गए थे तो भी ऐसी रिकॉर्डिंग करके उसे नेट पर डालने, या मैसेंजरों से फैलाने का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था। लेकिन हाल के बरसों में लोगों को मोबाइल फोन और ऐप का यह ऐसा मिलाजुला हथियार हाथ लगा है कि उससे वे अपने दिमागी सुख-चैन का भी कत्ल कर रहे हैं, और परिवारों के भीतर भी रिश्ते टूट रहे हैं। नाबालिग बच्चों से लेकर शादीशुदा महिलाओं तक जाने कितने किस्म की खुदकुशी सामने आती हैं जिनमें मोबाइल फोन न मिलने पर जिंदगी ही खत्म कर दी गई है। लोग अपने चेहरे, अपने फैशन, अपनी सही-गलत हरकतों को सोशल मीडिया पर डालने के लिए भयानक दर्जे के बावले हो रखे हैं। और तो और अलग-अलग शहरों के गुंडे-मवालियों के गिरोह भी अपने हथियारों की नुमाइश करते हुए सोशल मीडिया पर अपने वीडियो पोस्ट करते हैं, ताकि उनकी रंगदारी पर लोग दहशत में जल्दी आएं।
कई किस्मों से मोबाइल और कम्प्यूटर सरीखे हार्डवेयर ने, और अलग-अलग एप्लीकेशन और सॉफ्टवेयर ने लोगों को वैसे भी अपनी असल जिंदगी से काट दिया है, और ऑनलाईन दुनिया के बाशिंदे बना दिए हैं। लोगों को ऑनलाईन दोस्ती और मोहब्बत असल जिंदगी के अपने दायरे के लोगों के मुकाबले अधिक सुहाने लगी हैं। ऐसे में अगर किसी टी-शर्ट पर यह सुझाव मिलता है कि वे नेटफ्लिक्स ही देखते रहें, और इंसानों से परहेज करें, तो यह समाज को जापान की मौजूदा हालत की तरफ ले जाने की एक हरकत है जहां पर लोग जिंदगी के हर काम ऑनलाईन करने के ऐसे आदी हो गए हैं कि उन्हें असल इंसानों से रूबरू मिलने में डर लगने लगा है कि वैसे रिश्ते उनसे निभेंगे कैसे?
दरअसल डिजिटल और ऑनलाईन दुनिया लोगों को एक किस्म के आत्ममोहन में जीने का मौका देती है। इस हद तक कि अब ढेर सारे ऐसे एप्लीकेशन हैं जो लोगों को हजारों गुना अधिक सुंदर बनाकर पल भर में उनकी तस्वीर पेश कर देते हैं, और लोग उन्हें फटाफट सोशल मीडिया पर पोस्ट भी कर देते हैं। ऐसी सहूलियत किसी से असल जिंदगी में रूबरू होने पर हासिल नहीं रहती है। असल जिंदगी को अधिक खुशनुमा बनाने के एप्लीकेशन पूरी जिंदगी की कड़ी मेहनत से जरा सी हद तक हासिल हो पाते हैं, इसलिए लोग डिजिटल दुनिया में अपने को अधिक सुरक्षित महसूस करने लगे हैं, और फिर नेटफ्लिक्स सरीखे ओटीटी प्लेटफॉर्म तो पूरी तरह से एकतरफा हैं, और वे हर दिन इतना कुछ नया-पुराना पोस्ट करते रहते हैं कि उस सबको देखने में लोगों को कई-कई दिन लग जाएं।
जैसा कि बीबीसी का प्रोमो कहता है कि आज सबसे अधिक खतरनाक नशा डिजिटल कंटेंट क्रिएटर्स का, डिजिटल प्रोग्राम और एप्लीकेशन बनाने वाले लोगों का बनाया हुआ है, और वे लोगों के जैसे बर्ताव के लिए इन्हें बनाते हैं, लोग ठीक वैसा-वैसा बर्ताव करने लगते हैं। यह प्रोमो कहता है कि लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे डिजिटल औजारों का अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करें, न कि अपने आपको डिजिटल औजारों द्वारा इस्तेमाल करने दें।
डिजिटल नशामुक्ति अभी जमीन पर सब जगह हासिल नहीं है, लेकिन लोगों को बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के स्क्रीन-टाईम पर सोचने की जरूरत है। आज बहुत से बड़े लोग भी देर रात आंखें बंद हो जाने तक तरह-तरह की मादक, उत्तेजक, और अश्लील रील देखते हुए झपकी लेते रहते हैं, इस सिलसिले को तोडऩे और रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कम से कम बात तो शुरू करनी चाहिए।
(देवेन्द्र सुरजन की वाल से साभार)