
-देशबन्धु में संपादकीय
महाराष्ट्र और झारखंड दोनों ही राज्यों में चुनावी नतीजे शनिवार को सामने आ गए और अब नयी सरकारों के गठन की तैयारी प्रारंभ हो चुकी है। झारखंड में हेमंत सोरेन फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं, जबकि महाराष्ट्र में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह तय नहीं हो पाया है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एकनाथ शिंदे ही फिर से बैठेंगे या भाजपा इस बार देवेन्द्र फड़नवीस को प्रतीक्षा करने का इनाम देगी। महाराष्ट्र में महायुति के परस्पर समीकरण किस तरह तय होंगे, यह देखना भाजपा, शिवसेना शिंदे गुट और एनसीपी अजित पवार गुट का काम है। यह तय है कि महाविकास अघाड़ी को एक बार फिर विपक्ष में ही बैठना पड़ेगा, क्योंकि नतीजे उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं आये हैं।महायुति को इतनी बड़ी जीत मिलेगी, इस बात पर लगातार हैरानी जताई जा रही है क्योंकि जमीन पर माहौल एमवीए के लिए बना हुआ दिखाई दे रहा था। अब इस पर ईवीएम और चुनाव आयोग द्वारा पेश किए गए मतदान प्रतिशत और गिने गए वोटों में दिख रहे अंतर को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
शिवसेना सांसद संजय राउत के हिसाब से यह जनता का सुनाया फ़ैसला नहीं है, वे मांग कर रहे हैं कि एक बार चुनाव मतपत्रों यानी बैलेट पेपर से करवाएं जाएं, तो हकीकत सामने आ जाएगी। कुछ ऐसे ही आरोप कांग्रेस, शरद पवार की एनसीपी और सपा आदि दलों के नेताओं ने भी लगाए हैं। हरियाणा चुनावों में भी कांग्रेस ने इसी तरह ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगाए थे कि जिन सीटों पर गणना के वक्त ईवीएम की बैटरी 90 प्रतिशत तक चार्ज थी, वहां भाजपा को जीत मिल गई। तब सवाल उठे थे कि किसी भी मशीन की बैटरी प्रयोग में होने के इतनी देर बाद भी 90 प्रतिशत तक चार्ज कैसे रह सकती है। कांग्रेस ने तब कम से कम 20 सीटों में गड़बड़ी के खिलाफ तथ्यों के साथ एक शिकायत चुनाव आयोग में दायर की थी, जिसे फौरन खारिज कर दिया गया। बल्कि इसका जवाब देने में आयोग की तरफ से जो भाषा इस्तेमाल की गई, वह भी उचित नहीं थी। हालांकि अब फिर से हरियाणा कांग्रेस ने 27 सीटों में ईवीएम और आचार संहिता के उल्लंघन जैसी शिकायतों पर आधारित एक याचिका पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय में दाखिल की है। जिस पर सुनवाई होनी है।
इधर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका फिर से खारिज की गई, जिसमें मांग की गई थी कि चुनाव बैलेट पेपर से होना चाहिए। साथ ही इसमें यह सुझाव भी दिया गया था कि मतदाताओं को खरीदने की कोशिश करता हुआ अगर कोई उम्मीदवार दोषी पाया जाता है तो उसे पांच साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार करना चाहिए। के एल पॉल की इस याचिका को जस्टिस पी बी वराले और जस्टिस विक्रमनाथ की बेंच ने खारिज तो कर ही दिया, साथ ही कहा कि जब आप चुनाव जीतते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं होती और जब हारते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ होती है। शीर्ष अदालत ने यह जो तर्क अपने फ़ैसले में सुनाया गया, वह नया नहीं है। इन चुनावों में भाजपा भी इसी तरह की बात कह रही है। महाराष्ट्र में विपक्ष ईवीएम या अन्य गड़बड़ियों का मुद्दा उठा रहा है तो उसे झारखंड की जीत याद दिलाई जा रही है। हालांकि असल सवाल इसमें गुम हो रहा है कि क्या झारखंड में भाजपा ने हाथ पीछे खींच लिये ताकि महाराष्ट्र की सत्ता बरकरार रखी जाए। झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत से ईवीएम पर सवाल उठने बंद हो जाएंगे, शायद यह सोच भाजपा की थी। लेकिन अब कुछ और उलझे हुए तार सामने आए हैं, जिनसे निष्पक्ष चुनाव के ऊपर लग गए सवालिया निशान बड़े होते जा रहे हैं।
महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने मतदान प्रतिशत का अंतिम आंकड़ा 66.05 फीसदी बताया, जो कुल 64,088,195 वोट होते हैं, लेकिन मतगणना में गिने गए कुल वोटों का जोड़ 64,592,508 आया, जो कुल पड़े वोटों से 504,313 अधिक है। पांच लाख वोटों का यह अंतर क्यों और कैसे आया, इसका संतोषजनक जवाब निर्वाचन आयोग को देना चाहिए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में बड़े दिलचस्प आंकड़े सामने आए हैं, अष्टी निर्वाचन क्षेत्र में मतदान से 4,538 अधिक वोट गिने गए। यानी जितने वोट पड़े नहीं, उससे ज्यादा गिने गए। वहीं उस्मानाबाद निर्वाचन क्षेत्र में जितने वोट डाले गए और जितने गिने गए, उनमें 4,155 वोटों का अंतर रहा। नवापुर विधानसभा क्षेत्र अजा आरक्षित है, यहां निर्वाचन आयोग के मुताबिक मतदाताओं की कुल संख्या 2,95,786 है और मतदान 81.15 फीसदी हुआ। इसका मतलब 2,40,022 वोट पड़े। लेकिन कुल 2,41,193 वोटों की गिनती हुई। यानी 1,171 वोट अधिक गिने गए और हैरानी की बात ये है कि यहां जीत का अंतर 1,122 वोटों का था। इसी तरह मावल विधानसभा क्षेत्र में मतदाताओं की कुल संख्या 3,86,172 है और मतदान 72.59 फीसदी हुआ। इसका मतलब 2,80,319 वोट पड़े। हालांकि, आयोग द्वारा प्रकाशित नतीजों के अनुसार, कुल वोटों की गिनती 2,79,081 थी, जो डाले गए वोटों से 1,238 वोट कम है।
इस तरह कहीं मतदाताओं से ज़्यादा वोटों की संख्या रही, कहीं कुल मतदान से कम या ज़्यादा वोटों की गिनती हुई। भले ही 288 सीटों में से कुछ ही सीटों पर ऐसी गड़बड़ी सामने आई है, लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि बाकी जगह पर इसी तरह की कोई और गड़बड़ी नहीं हुई होगी। महाराष्ट्र में कई विधानसभा सीटों पर जीत-हार का अंतर भी बेहद मामूली रहा। कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले तक अपनी सीट बमुश्किल 208 वोटों से जीत पाये, मालेगांव सीट पर एआईएमआईएम प्रत्याशी ने महज 162 वोटों से अपनी सीट बचाई। ऐसे में अगर हज़ार-दो हज़ार का अंतर मतदान के वास्तविक आंकड़े और गिने गए वोटों में दिख रहा है, तो फिर नतीजों में उलटफेर होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट या निर्वाचन आयोग बैलेट पेपर यानी मतपत्रों से चुनाव की बात मौजूदा वक़्त में स्वीकार नहीं करेगा, यह ज़ाहिर है। हालांकि दुनिया के कई देशों ने ईवीएम से किनारा कर लिया है। लेकिन भारत अभी बाकी दुनिया की राह पर नहीं चलना चाहता। समय और संसाधन की बचत जैसे तर्क ईवीएम के पक्ष में दिए जाते हैं। हालांकि यह विचारणीय मुद्दा है कि समय और संसाधन बचाते हुए क्या हम लोकतंत्र को खो रहे हैं।