एक देश समाज की परेशानी में दूसरे देश की संभावनाएं…

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भारत में आज बेरोजगारी सिर चढक़र बोल रही है, और बहुत से ऐसे नौजवान हैं जो पढ़े-लिखे निठल्ले बैठे हैं, और कोई काम ढूंढ भी नहीं रहे हैं। ऐसे में स्कूली पढ़ाई के बाद दुनिया की अलग-अलग भाषाओं को सिखाने के संस्थान होने चाहिए, और दुनिया भर में जैसे हुनर की जरूरत है, वैसे हुनर होने चाहिए।

-सुनील कुमार-

.आबादी में सैकड़ा पार लोगों के अनुपात में जापान दुनिया में सबसे आगे है। ताजा खबर बताती है कि हर दस जापानियों में से एक 80 बरस या उससे अधिक उम्र के हैं। करीब 30 फीसदी आबादी 65 बरस या उससे ऊपर की है, और दुनिया में जन्म दर के मामले में जापान सबसे नीचे के देशों में से है, और आज वहां यह खतरा खड़ा हो गया है कि कामकाजी आबादी के मुकाबले रिटायर्ड आबादी अधिक हो गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का अध्ययन बताता है कि जापान में दुनिया की सबसे बूढ़ी आबादी है, और यह अनुपात बढ़ते ही चले जाना है। हालत यह है कि लोगों की देखभाल करने वाली उनकी अगली पीढ़ी नहीं है, इसलिए वे रिटायर हो जाने की उम्र के बाद भी, 65 बरस के बाद भी काम कर रहे हैं। पिछले सवा दो सौ सालों में, जब से वहां जन्म रजिस्टर बना हुआ है, पिछले बरस सबसे कम, 8 लाख से भी कम बच्चे पैदा हुए हैं। 1970 के दशक में यह संख्या 20 लाख से अधिक थी। प्रधानमंत्री का यह बयान इसी बरस आया है कि उनका देश गिरते हुए जन्म दर की वजह से अब एक समाज की तरह काम करने लायक नहीं रह गया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि जापान के अलावा दक्षिण कोरिया, ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन, बल्गारिया जैसे बहुत से ऐसे देश हैं जहां के गिरते हुए जन्म दर की वजह से वहां की आबादी अब लगातार घटती ही चली जानी है, और कितनी भी कोशिशें क्यों न हो जाएं, शायद आधी-एक सदी के पहले वहां आबादी का संतुलन नहीं बन पाएगा।

ऐसे में भारत को देखना दिलचस्प होता है जहां पर आबादी प्रति महिला 2.05 तक आ गई है। आबादी को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रति महिला औसत 2.1 बच्चे पैदा करने वाली होनी चाहिए। भारत के 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 25-30 बरस में जैन समुदाय को छोडक़र सभी की आबादी बढऩा रूका है। लेकिन हिन्दुस्तान की आबादी चीन की आबादी के आसपास चल रही है, और चीनी आबादी गिरने का अंदाज है, भारत की आबादी अभी कुछ वक्त तक बढ़ती रह सकती है। अब दुनिया के अलग-अलग देशों में आबादी के बिगड़े हुए संतुलन को अगर देखें, और दुनिया के कुछ देश अगर समझदारी और कल्पनाशीलता दिखाएं, तो दूसरों की परेशानी में भी वे अपने लोगों के लिए एक संभावना ढूंढ सकते हैं। अब जैसे जापान में बुजुर्गों की देखभाल के लिए लोग कम पडऩे वाले हैं, तो ऐसे में अगर दुनिया के भारत सरीखे कुछ दूसरे देश अपने बेरोजगारों के लिए ऐसे कोर्स चलाएं जिनमें बुजुर्गों की देखभाल ही सिखाई जाए, और इसके साथ-साथ जापानी भाषा और संस्कृति सिखाई जाए, वहां की सरकार और कारोबार के साथ बातचीत करके ऐसे लोगों को वहां रोजगार दिलाया जाए। आज भी ब्रिटेन सरीखे देश में स्वास्थ्य सेवाएं भारत जैसे कई देशों से गई हुई नर्सों की बदौलत ही चल रही हैं। वहां हर बरस हजारों भारतीय नर्सों के लिए नौकरी निकाली जाती है, और दुनिया के बाकी देशों से प्रशिक्षित नर्सें पूरी तरह देश छोडक़र ब्रिटेन न चली जाएं, इसलिए वहां अलग-अलग देशों से नर्सों को लेने का एक अधिकतम कोटा तय किया गया है। मतलब यह कि भारत में प्रशिक्षण प्राप्त नर्सों की अंतरराष्ट्रीय संभावनाएं कई जगह बनी हुई है। जापान जैसी बूढ़ी आबादी के बीच भी नर्सों या घरेलू सहायकों की जरूरत आज भी है, और आगे भी बनी रहेगी। अब ऐसे में अगर हिन्दुस्तान के कुछ खास तरह के लोगों को जापान में काम करने के हिसाब से प्रशिक्षण दिया जाए, बूढ़े लोगों के साथ काम करने की जरूरतों को समझाया जाए, जापानी खाना पकाना, वहां की भाषा, संस्कृति सिखाई जाए, तो हर बरस हजारों लोगों का रोजगार पैदा हो सकता है। भारत सरकार को चाहिए कि दुनिया के देशों के अगले 25-50 बरस की ऐसी संभावनाओं का हिसाब लगाकर उसके हिसाब से एक वर्कफोर्स तैयार की जाए जो कि भारत के लिए एक विदेशी कमाई का जरिया भी बनेगी, और भारतवंशी लोग नई जगहों पर पहुंच भी पाएंगे। आज कनाडा के साथ एक तनाव के संदर्भ में ही बात सामने आ रही है, लेकिन ये आंकड़े हैरान करने वाले हैं कि वहां पर सिक्खों की आबादी इतनी है कि राजनीतिक दल उन्हें सांसद भी बनाते हैं, और आज शायद भारत के मुकाबले कनाडा में अधिक सिक्ख सांसद हैं। सिक्ख वहां पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी हैं, कारोबार में आगे हैं, वहां उनकी भाषा, उनकी संस्कृति को समाज में जगह मिली हुई है। चूंकि भारत पर एक वक्त अंग्रेजों का राज था इसलिए अंग्रेजी भाषा सीखना यहां के लोगों के लिए आसान था, और वे अंग्रेजी बोलने वाले देशों में अधिक गए। लेकिन किसी देश में कामकाज की भाषा सीखना एक-दो बरस से अधिक का काम नहीं रहता, और दूसरे जरूरतमंद हुनर के साथ-साथ ऐसी भाषा सीखकर हिन्दुस्तानी लोग कई देशों में रोजगार पा सकते हैं, जहां पर उनकी अपनी आबादी गिर रही है, और बुजुर्गों की आबादी बढ़ती चली जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अंदाज 2050 तक के हैं, और जापान, दक्षिण कोरिया, हांगकांग जैसे कई देशों में 65 बरस से ऊपर वाले लोगों की आबादी का अनुपात लगातार बढऩा है। जो विकसित अर्थव्यवस्थाएं हैं वे तो बुजुर्गों की देखरेख का बोझ उठा लेंगी लेकिन समाज में बुजुर्ग आबादी की देखरेख एक अलग किस्म की चुनौती रहेगी, और वह पूरी दुनिया के लिए एक नई संभावना भी रहेगी। जापान सरीखे देश में नौजवान आबादी शादी से कतरा रही है, और अधिक से अधिक अकेले रह रही है। दूसरी तरफ चीन जैसे देश हैं जहां पर नौजवान आबादी एक से अधिक बच्चे पैदा करने पर तैयार नहीं हो रही है, और वहां भी आबादी गिरते चले जाना तय सरीखा है। भारत में आज बेरोजगारी सिर चढक़र बोल रही है, और बहुत से ऐसे नौजवान हैं जो पढ़े-लिखे निठल्ले बैठे हैं, और कोई काम ढूंढ भी नहीं रहे हैं। ऐसे में स्कूली पढ़ाई के बाद दुनिया की अलग-अलग भाषाओं को सिखाने के संस्थान होने चाहिए, और दुनिया भर में जैसे हुनर की जरूरत है, वैसे हुनर होने चाहिए। देखें भारत में सत्ता की कोई कल्पनाशीलता नौजवानों को धर्मान्धता में झोंकने के बजाय अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं की तरफ भी ले जा पाती है या नहीं।
(देवेन्द्र सुरजन की वाल से साभार)

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