खामोश हो गई तबले की थाप

शास्त्रीय संगीत के बारे में आम धारणा यही है कि यह बोझिल होता है, आसानी से समझ नहीं आता और इसी वजह से आम जनता के बीच इसका चलन कम होता है। लेकिन ज़ाकिर हुसैन ने इस धारणा को तोड़ा और अपने तबले के जरिए शास्त्रीय संगीत की खूबियों से आम जनता को परिचित कराया और उन्हें इसका आनंद लेने का मौका दिया।

jakir husain
photo courtesy social media

-देशबन्धु में संपादकीय 

तबले पर जादू की तरह थिरकती उंगलियों के साथ ताल का मायाजाल खड़ा करने के माहिर उस्ताद ज़ाकिर हुसैन नहीं रहे। 73 बरस की उम्र में उन्होंने सैन फ्रांसिस्को, अमेरिका में आखिरी सांस ली। संगीत की दुनिया में लगातार छह दशकों तक उस्ताद ने अपनी छाप कायम की। संगीत की दुनिया में चार पीढ़ियों के साथ संगत करने का कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किया। यूं तो बचपन से ही अपने पिता और गुरु उस्ताद अल्ला रक्खा खां से उन्होंने तबला वादन की तालीम ली, लेकिन 12 बरस की अल्पायु में ही बड़े ग़ुलाम अली, आमिर खां, ओंकारनाथ ठाकुर के साथ संगत की, 16-17 के होते-होते वे पं. रविशंकर, उस्ताद अली अकबर खां के साथ कार्यक्रमों में तबला बजाने लगे। उनके पिता ने भी पं. रविशंकर के साथ लंबे वक्त तक संगत की। इसके बाद ज़ाकिर हुसैन ने शास्त्रीय संगीतज्ञों की अगली पीढ़ी पं. हरि प्रसाद चौरसिया, पं. शिव कुमार शर्मा, उस्ताद अमज़द अली खां के साथ संगत की और फिर उनकी पीढ़ी शाहिद परवेज़, राहुल शर्मा, अमान अली खां, अयान अली खां आदि के साथ भी तबला बजाया। संगीत की चार पीढ़ियों का साथ देते-देते जाकिर हुसैन ने हिंदुस्तानी और पाश्चात्य संगीत के बीच भी अद्भुत तालमेल किया। इसलिए उन्हें चार-चार ग्रैमी अवार्ड मिले, जिनमें तीन तो इसी साल फरवरी में ही मिले थे। भारत सरकार ने भी उन्हें पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण से नवाजा, इसके अलावा कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी अवार्ड भी उन्हें दिये गये।

लेकिन उस्ताद ज़ाकिर हुसैन होने का महत्व इन पुरस्कारों और सम्मानों से नहीं, बल्कि इस बात से था कि अपने संगीत को उन्होंने दुनिया को एक जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया। भारतीय और पाश्चात्य संगीत का अद्भुत मिश्रण कर उन्होंने ज़ाहिर किया कि पूरी दुनिया में संगीत की ज़ुबां एक ही है। दरअसल इस एकता का मंत्र तो उनके पैदा होते साथ ही उनके पिता ने उनके कानों में फूंक दिया था। नसरीन मुन्नी कबीर की पुस्तक ‘ए लाइफ़ इन म्यूज़िक’ में उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के हवाले से बताया गया है कि- जब मैं पैदा हुआ तो मां ने मुझे पिता उस्ताद अल्ला रक्खा की गोद में रखा। दस्तूर के मुताबिक उन्हें मेरे कान में एक प्रार्थना सुनानी थी। पिता बीमार थे, लेकिन फिर भी वो अपने होंठों को मेरे कानों के बिल्कुल करीब ले आए और तबले के कुछ बोल सुनाये। मां नाराज हुईं और कहा कि यह तो अपशकुन है। पिता ने जवाब दिया कि संगीत मेरी साधना है और सुरों से मैं सरस्वती और गणेश की पूजा करता हूं। इसलिए यही सुर-ताल मेरी दुआ है।

ज़ाकिर नाम का कोई इंसान सरस्वती और गणेश का जिक्र अपने होठों पर लाए, ये बात आज के भारत में सीधे सांप्रदायिक तनाव की तरफ ध्यान ले जायेगी। क्योंकि मौजूदा राजनीतिक माहौल में पहनावे से लेकर खान-पान और भाषा तक सभी को हिंदू-मुसलमान में बांटने की कवायद की जा रही है। संगीत की दुनिया फिलहाल इससे बची हुई है, लेकिन इस बात की ख़ैर भी हम कब तक मना सकते हैं। बहरहाल, जाकिर हुसैन को उनके पिता ने जिस संगीत की तालीम दी, अपने कार्यक्रमों में वे उसे बताते भी थे। एक कार्यक्रम के दौरान ज़ाकिर हुसैन एक हाथ से तबले पर थाप देकर बताते रहे कि शिव जी के डमरू से जो नाद उत्पन्न हुआ, गणेश जी ने उसे कैसे ताल में बदला। और फिर डमरू के साथ-साथ शंख की ध्वनि भी जाकिर हुसैन ने अपने तबले से निकाल कर बताई। घोड़ों की टाप, रेगिस्तान में तूफान, बारिश की टपटप, मंदिर की घंटी, शिवजी का डमरू सब कुछ जाकिर हुसैन अपने तबले के जरिए श्रोताओं को सुना देते थे। उनके तबला वादन और संगीत में किए गए तमाम प्रयोगों की खासियत यही थी कि वे जनता को सीधे इससे जोड़ देते थे। शास्त्रीय संगीत के बारे में आम धारणा यही है कि यह बोझिल होता है, आसानी से समझ नहीं आता और इसी वजह से आम जनता के बीच इसका चलन कम होता है। लेकिन ज़ाकिर हुसैन ने इस धारणा को तोड़ा और अपने तबले के जरिए शास्त्रीय संगीत की खूबियों से आम जनता को परिचित कराया और उन्हें इसका आनंद लेने का मौका दिया।

पाठकों को ताजमहल चाय का वह विज्ञापन याद ही होगा, जिसमें वाह उस्ताद वाह, के जवाब में वे बड़े अदब से कहते हैं अरे हुज़ूर, वाह ताज कहिए। यही अदब और मासूमियत हमेशा उनके तबले के जरिए सुनाई देती रही। दरअसल संगीत ज़ाकिर हुसैन के लिए सबसे पवित्र और वरदान की तरह था। बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने संगीत को सरस्वती का वरदान बताया था। उन्होंने कहा था कि शिवजी का डमरू या गणेशजी का पखावज या फिर कृष्ण की बांसुरी, हिंदुस्तान पर इन सबका आशीर्वाद है तो स्वाभाविक है कि इसमें आत्मा तो होगी ही। उनके मुताबिक संगीत सबसे पवित्र है। नाद ब्रह्म यानी ध्वनि ईश्वर है। उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली साहब के एक इंटरव्यू का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि जब उनसे पूछा गया कि ये हरिओम तत् सत..आपने कैसे गाया, तो उन्होंने कहा ये ख़ुदा का नाम है और हम इसे सराह रहे हैं। जाकिर हुसैन के मुताबिक ख़याल की पैदाइश ध्रुपद, प्रबंध गायकी, हवेली संगीत, सूफ़ियाना कलाम को मिलाकर हुई है। तभी तो पंडित जसराज गाते हैं ‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ और बड़े ग़ुलाम अली खां साहब ‘हरिओम तत् सत’ गाते हैं। ज़ाकिर हुसैन का कहना था कि संगीत में किसी तरह की सीमा या बंधन नहीं है। दुनिया के राजनेता ये समझ लें तो सब कुछ ठीक हो जायेगा।

आज जब भारत समेत पूरी दुनिया में धर्म के नाम पर इंसानियत का क़त्ल हो रहा है, तब संगीत के जरिये आये इस पैग़ाम का महत्व कई गुना बढ़ जाता है। अफ़सोस इस बात का है कि उस्ताद अल्ला रक्खा खां और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन जैसी सोच रखने वाले फ़नकार अब गिने-चुने रह गये हैं।

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