
-सुनील कुमार Sunil Kumar
कर्नाटक के एक रिटायर्ड डीजीपी की उनके घर पर मिली लाश का राज हक्का-बक्का करता है। पुलिस को जो सुबूत मिले हैं, और मृतक की पत्नी का जो बयान मिला है, उसके मुताबिक पत्नी ने ही पहले पति की आंखों में मिर्च का पावडर झोंका, और फिर चाकू के कई वार करके उसे मार डाला। लाश के पास चाकू भी मिला है, कांच की टूटी हुई बोतल भी मिली है, पत्नी ने फोन करके पुलिस को जानकारी देकर बुलाया, और अपनी एक सहेली को वीडियो कॉल करके यह कहा भी कि मैंने शैतान को मार डाला है। मरने वाले के बेटे का शक है कि पत्नी के अलावा बेटी का हाथ भी उसमें हो सकता है जो कि उस वक्त घर पर मौजूद थी।
ऐसी एक-एक घटना भारत में बढ़ते हुए पारिवारिक तनाव को दिखाती है, और देश भर में पति-पत्नियों के बीच एक संदेह और अविश्वास का वातावरण भी बढ़ाती है। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले एक पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति के टुकड़े कर दिए थे, और टुकड़ों को ड्रम में भरकर सीमेंट से पैक कर दिया था। इसके बाद अलग-अलग शहरों में पतियों की तरफ से पत्नियों के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट लिखाई गई थी कि वे उन्हें नीले ड्रम की धमकी दे रही हैं। ऐसे कई मामले हुए जिनमें पत्नियों ने परंपराओं से हटकर पतियों को मार डाला, जबकि आमतौर पर इसे भारत में पुरूष का ही एकाधिकार माना जाता था। ऐसा लगता है कि सदियों तक अबला बने रहने के बाद अब महिलाएं अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने लगी हैं, और बराबरी का दावा भी कर रही हैं। कल ही छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की एक खबर है कि एक युवती ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने मंगेतर, और होने वाले पति का अपहरण कर लिया, क्योंकि वह परिवार की तय की हुई शादी से खुश नहीं थी। इस मामले में पुलिस ने अपहरण में शामिल प्रेमी-प्रेमिका, और दूसरे लोगों को सुबूतों के साथ गिरफ्तार कर लिया है, और कार भी जब्त कर ली है। अभी कुछ दशक पहले तक तो भारत में यह बात आम थी कि परिवार के लोग लडक़ी को जिस खूंटे से बांध दें, वह बाकी जिंदगी वहीं बंधी रह जाती थीं। अगर दहेज-हत्या न हुई तो भी उसकी अर्थी ससुराल से ही उठती थी, चाहे वह कितनी ही प्रताडऩा क्यों न पाए? मां-बाप बिदा करते हुए यही नसीहत देते थे कि डोली पिता के घर से उठती है, और अर्थी पति के घर से। इस नसीहत में परिवार के बेटे भी शामिल रहते थे, क्योंकि अगर बेटी ससुराल से लौटी तो मायके में उसका रहना भाईयों पर बोझ सरीखा रहेगा। इसलिए आज जब लड़कियां, और महिलाएं न सिर्फ अपनी जिंदगी के फैसले खुद ले रही हैं, बल्कि पति के हाथों मारे जाने के बजाय, कम से कम कुछ मामलों में पति को मार रही हैं, कुछ मामलों में किसी भूतपूर्व या वर्तमान प्रेमी को मार रही हैं, कत्ल के जुर्म में खुद भी शामिल हो रही हैं, तो यह भारतीय महिलाओं में कुछ गिनी-चुनी महिलाओं की एक नई किस्म की स्थिति का सुबूत है। इसे तमाम महिलाओं की आम सोच मानना ठीक नहीं होगा, और हम इस मुद्दे का कोई अतिसरलीकरण भी करना नहीं चाहते, लेकिन मर्दों को यह समझ लेने की जरूरत है कि वे प्रेमसंबंधों में प्रेमिका को, और शादीशुदा रिश्ते में पत्नी को अधिक प्रताडि़त नहीं कर सकते, और ऐसी प्रताडऩा के जवाब में वे अपनी जिंदगी खो सकते हैं, जो कि भारतीय सामाजिक परंपराओं में खासी नई बात है, और अधिकतर लोग इसे कोई नया ट्रेंड मानने से भी इंकार करेंगे।
चाहे ऐसे मामले गिने-चुने हों, लेकिन ऐसे कुछ मामले तो हो रहे हैं। दूसरे तरफ कुछ ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं जिनमें पत्नी पर प्रताडऩा का आरोप लगाते हुए पति खुदकुशी कर रहे हैं, और कहीं उसके वीडियो बनाकर छोड़ रहे हैं, तो कहीं कोई लाईव प्रसारण करते हुए आत्महत्या कर रहे हैं। अभी तक शादीशुदा जोड़ों के बीच आत्महत्या करने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं पर थी, और इस मामले में भी हालात कुछ बदले हुए हैं। समाजशास्त्रीय अध्ययन करने वाले लोगों को यह विश्लेषण करना चाहिए कि यह फेरबदल क्यों हुआ है? कैसे महिलाओं को चाहे गिनती में अपेक्षाकृत कम मामलों में, लेकिन बहुत से मामलों में इतनी हिंसा की ताकत मिलती है, आत्मविश्वास मिलता है, और उम्रकैद के लायक गंभीर जुर्म करती हैं। इसे समझने की जरूरत है क्योंकि समाज में यह एक बड़ा फेरबदल है, और हम इसे सिर्फ लोकतांत्रिक समानता मानकर संतुष्ट हो जाना नहीं चाहते, ऐसी समानता समाज में किसी काम की नहीं है जिसमें औरत और मर्द दोनों बराबरी से हिंसा करते दिखें। जरूरत तो यह है कि प्रेमसंबंध, देहसंबंध, या वैवाहिक संबंध, किसी भी तरह के संबंध में हिंसा को कम से कम किया जाए, उसे लगातार घटाया जाए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि शादीशुदा जोड़ों के बीच, या कि प्रेमियों के बीच संबंध ठीक रहना दो लोगों की सेहत के लिए तो जरूरी है ही, यह इसलिए भी जरूरी है कि इन दोनों के परिवारों के लोगों पर भी तनाव न छाया रहे। अब जहां घर के भीतर पति-पत्नी में कत्ल जैसी नौबत आ रही है, तो वहां परिवार के दूसरे लोग भी बाकी पूरी जिंदगी ऐसे तनाव के साथ जीने को मजबूर रहेंगे।
सरकार और समाज दोनों को ही समाजशास्त्रीय अध्ययन की जरूरत है क्योंकि परिवारों के भीतर की ऐसी हिंसा अगर बढ़ती चली जा रही है, तो ऐसे हालात सुधारना जरूरी है, किसी भी तरह के जोड़ों के बीच, और परिवार के बीच तनाव को घटाने के तरीके भी निकालने चाहिए। हम लंबे समय से मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं की संख्या बढ़ाने की वकालत करते आए हैं कि हर प्रदेश सरकार को, और केन्द्र को भी अपने-अपने विश्वविद्यालयों के मनोवैज्ञानिक विभाग में परामर्शदाताओं के कोर्स चलाने चाहिए, और जब समाज में उनकी उपलब्धता अधिक रहेगी, तभी जाकर लोग भी तनावमुक्त होने की एक संभावना पा सकेंगे। यह नौबत कितनी भयानक है कि एक परिवार के भीतर, एक छत-तले जीने वाले लोग कब एक-दूसरे के हाथों मारे जाएं, इसका कोई भरोसा नहीं है, और ऐसे अविश्वास के साथ कैसे लोगों के बीच अच्छे रिश्ते रह सकते हंै? ऐसा तनाव समाज और देश की हर तरह की उत्पादकता को भी घटाता है, इसे ध्यान में रखते हुए भी सरकारों को खुद अपने फायदे के लिए तनाव घटाने की कोशिशें करनी चाहिए।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)