वे 9 रेलवे सिपाही हरामखोरी न करते, तो गोधरा न हुआ होता!

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-सुनील कुमार Sunil Kumar

कुछ विज्ञान कथाओं में टाईम मशीन का जिक्र रहता है, जिसमें बैठकर लोग बीते हुए वक्त में जाते दिखते हैं। कुछ लोग सैकड़ों या हजारों बरस पहले चले जाते हैं, और उन्हें यह सावधानी बरतने कहा जाता है कि वे किसी चीज का न छुएं, न बर्बाद करें, क्योंकि उससे हो सकता है कि आज की बहुत सारी चीजें प्रभावित हो जाएं। ऐसे ही अगर कल्पना की जाए कि ये न होता तो क्या होता, वो न होता तो क्या होता?

मैंने कभी इतिहास पढ़ा नहीं है, इसलिए इतिहास को लेकर मेरे मन में जिज्ञासाएं अधिक हैं। मुझे लगता है कि अगर अंग्रेज हिन्दुस्तान न आए होते, तो क्या यहां के राज-पाट, और रजवाड़े कभी एक-दूसरे से लडऩा बंद करते, या साथ में जीना सीख पाते? अगर अंग्रेजों ने बहुत से राजाओं को काबू में न किया होता, और एक ढांचे में न बांधा होता, तो क्या आजादी के बाद सरदार पटेल के लिए इन्हें भारत के राज में विलीन कर पाना मुमकिन हो पाता, ऐसी बहुत सी कल्पनाएं मेरे दिमाग में आती रहती हैं, और ऐसी आऊट ऑफ बॉक्स थिंकिंग के लिए अनपढ़ होना भी जरूरी रहता है, जो कि इतिहास में मैं पर्याप्त रूप से हूं।

अब ऐसा ही एक मुद्दा अभी गुजरात हाईकोर्ट में आया है जिसमें रेलवे के 9 सिपाहियों की बर्खास्तगी के निचली अदालत के फैसले को हाईकोर्ट ने सही ठहराया है। यह मामला 27 फरवरी 2002 का है जब साबरमती एक्सप्रेस को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर जलाया गया था, और उसमें 59 हिन्दू कारसेवक जलकर मर गए थे। बाद में इसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में दंगे हुए थे, या करवाए गए थे, और उसमें हजार-दो हजार मौतें हुई थीं। अब जिस ट्रेन के डिब्बे जलाए गए थे, उस साबरमती एक्सप्रेस में रेलवे पुलिस के 9 सिपाहियों की ड्यूटी लगी थी, लेकिन इस ट्रेन के लेट पहुंचने से ये पुलिस सिपाही इस ट्रेन में आने की फर्जी हाजिरी डालकर एक दूसरी ट्रेन से पहले ही गोधरा पहुंच गए, और गोधरा में इस ट्रेन के कारसेवकों वाले डिब्बे को आग लगाई गई, जिसने गुजरात और देश के इतिहास को बदल दिया।

गुजरात हाईकोर्ट ने यह माना है कि अगर ये 9 सिपाही अपनी ड्यूटी करते होते, तो हो सकता है कि ट्रेन में यह आगजनी न हुई होती (और न गोधरा होता, और न बाद के गुजरात दंगे)। अब यह तो एक काल्पनिक स्थिति ही है कि 8 हिन्दू और 1 मुस्लिम, ये 9 सिपाही उस ट्रेन में ड्यूटी करते, जहां इनकी ड्यूटी लगाई गई थी, तो शायद ऐसी नौबत न आती। लेकिन कल्पनाएं काल्पनिक कथाओं को लिखने के काम तो आती हैं, आज अमरीका में यह कल्पना किसी काम की तो रह नहीं गई है कि ट्रम्प हार जाते, और कमला हैरिस जीत जातीं, तो क्या होता?

इतिहास को लेकर ऐसे बहुत से सवाल हो सकते हैं कि अगर गांधी को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से नीचे प्लेटफॉर्म पर फेंक नहीं दिया गया होता, तो क्या वे महात्मा बने होते? अगर 1971 में बांग्लादेश नहीं बना होता, तो पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की शक्ल में क्या पाकिस्तान भारत को दो तरफ से घेरकर रखता? ऐसी कल्पनाएं सिर्फ काल्पनिक कहानियां लिखने के लिए ठीक है, क्योंकि इतिहास को घड़ी की सुईयां उल्टी घुमाकर बदला नहीं जा सकता।

अगर लोगों का बस चलता, और वे अंदाज लगा पाते, तो एक-दो बरस के लिए भारत में पेजर नाम के संचार-उपकरण का चलन ही शुरू नहीं होता, क्योंकि उसके तुरंत बाद मोबाइल फोन आ गया, और कम से कम भारत में गिने-चुने दो-चार बरस की जिंदगी गुजारकर ही पेजर एंटीक सामान बन गया, इतिहास बन गया। ऐसे ही शायद गिने-चुने लोगों को ही मालूम होगा कि एक वक्त के काले ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह की लेजर डिस्क भी एक वक्त भारत में चलन में आई थी, लेकिन कुछ बरस के भीतर ही पहले सीडी ने, और फिर डीवीडी ने उसे उखाड़ फेंका। और किसने सोचा था कि डीवीडी इतनी जल्दी चल बसेगी, और अब पेनड्राइव से होते हुए मामला क्लाउड स्पेस तक आ गया है, और मेमोरी स्टोर करके रखने के तरीके पिछले 25 बरस में फ्लॉपी डिस्क से लेकर क्लाउड स्पेस तक पहुंच गए हैं। अगर आज किसी को टाईम मशीन से इतिहास में जाने का मौका मिले, और वे वहां पर लोगों को बता सकें कि स्टोरेज डिवाइसेज इतनी बदलने वाली हैं, तो भला उस पर किसे भरोसा होगा?

दूर की क्यों कहें, अभी साल भर पहले भी किसे भरोसा था कि वे अपने कम्प्यूटर पर चैट जीपीटी, ग्रोक, जेमिनी, और मेटा, चारों एआई टूल्स को एक साथ खोलकर उससे एक जैसा काम करवाकर देख सकते हैं कि उनमें से किसका काम उनके अधिक काम का रहता है। मैं तकरीबन हर दिन ही अपने संपादकीय, या इस साप्ताहिक कॉलम ‘आजकल’ या अपने यूट्यूब, ‘इंडिया-आजकल’ के पोस्टर बनाने के लिए तस्वीरें इन्हीं औजारों से बनाता हूं, और मर्जी की तस्वीर बनने में औसतन दो-चार मिनट लगते हैं। इसकी कल्पना तो मुझे कुछ महीने पहले भी नहीं थी, कि ऐसा कोई दिन आ सकता है। अब ग्राफिक डिजाइनें बनाने के लिए जो हाई कन्फिगरेशन के कम्प्यूटर लगते थे, उनकी कोई जरूरत नहीं रह गई है क्योंकि ऐसी तस्वीरें बनाने का काम एक वेबसाइट खोलकर किया जा सकता है जो कि किसी दूसरे देश के कहीं बसे हुए सर्वर से यह काम करती है।

हर दिन कुछ कल्पनाएं हकीकत में बदल रही हैं, और कुछ हकीकत ऐसी हैं जो कि कल्पना का मौका देती हैं कि गोधरा में अगर वे 9 सिपाही कामचोर नहीं होते, हरामखोरी न करते होते, और जिस ट्रेन में ड्यूटी थी, उसी में चलते तो हो सकता है कि गोधरा कांड हुआ ही नहीं रहता। लोग इतिहास से लेकर वर्तमान, और भविष्य तक की कल्पनाएं अपनी हसरत जोडक़र कर सकते हैं कि ऐसा न होता, तो क्या होता, और वैसा होता तो क्या होता!

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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