आजाद का बयान नये समीकरणों का संकेत

kirti
कीर्ति आजाद की ममता बनर्जी के साथ फाइल फोटो सोशल मीडिया से साभार

-देशबन्धु में संपादकीय 

तृणमूल कांग्रेस के सांसद कीर्ति आज़ाद ने प्रतिपक्षी गठबन्धन इंडिया पर जो हमले किये हैं उससे नये सियासी समीकरणों के संकेत मिलते हैं। यह अलग बात है कि उनके इन बयानों में विरोधाभास भी हैं। तो भी जो तल्खी टीएमसी सांसद ने दिखाई है, वह बतलाती है कि इंडिया से कुछ दल अलग हो सकते हैं और यह भी सम्भव है कि विपक्षी दल नये समीकरण रच सकते हैं। कीर्ति आज़ाद के बयानों का कांग्रेस क्या प्रतिसाद या उत्तर देती है, यह देखने वाली बात है तभी भावी घटनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार का ठीकरा एक तरह से कांग्रेस पर फोड़ते हुए पूर्व क्रिकेटर तथा बर्धमान-दुर्गापुर के सांसद कीर्ति आज़ाद ने यह भी साफ़ किया कि- ‘2026 में होने वाले राज्य के विधानसभा चुनाव में टीएमसी अकेली उतरेगी। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का कोई आधार नहीं है इसलिये अपने हितों की अनदेखी कर टीएमसी गठबन्धन को मजबूत करने के फेर में नहीं पड़ेगी।’ वैसे भी टीएमसी अध्यक्ष तथा प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस आशय का ऐलान सोमवार की पार्टी बैठक में कर ही दिया है। आज़ाद ने यहां तक कहा कि -‘कांग्रेस ने सहयोगी दल आप की पीठ में छुरा घोंपा है। उसे इंडिया में बने रहने का अधिकार नहीं है।’ वे पहले ही बोल चुके चुके हैं कि गठबन्धन का नेतृत्व करने के लिये ममता बनर्जी से बेहतर कोई भी नहीं है जिन्होंने अपने राज्य में भारतीय जनता पार्टी को बुरी तरह से हराया है।

कीर्ति आज़ाद का यह बयान लगभग उसी लाइन पर है जिस पर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम व शिवसेना (यूबीटी गुट) के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे दे चुके हैं। एक तरह से महाराष्ट्र, हरियाणा और उसके बाद दिल्ली हारने के बाद कांग्रेस पर हमले तेज हो गये हैं जो बतलाते हैं कि कुछ दल कांग्रेस को लेकर बेचैन हैं। हालांकि कांग्रेस पर होने वाले इन आक्रमणों में इस बात के अलावा कोई भी शिकायत वाजिब नहीं है कि उसके द्वारा इंडिया गठबन्धन की बैठक नहीं बुलाई जाती या फिर, अब तक कोई संयोजक नहीं बनाया गया है। इन बातों में दम तो हैं लेकिन गठबन्धन यह भूल जाता है कि कांग्रेस केवल नेतृत्व नहीं कर रही है बल्कि उसके पास अपनी दलीय ज़रूरतें भी हैं जिनमें से एक है खुद को मजबूत बनाना तथा चुनाव लड़ना। इंडिया के शेष जितने भी घटक दल हैं उनकी मौजूदगी एक-एक राज्य में ही है, आप को छोड़कर जिसने अभी दिल्ली खोई है पर पंजाब में उसकी सरकार है।

आज़ाद का यह कहना कि कांग्रेस अपने सहयोगियों का नुक़सान करेगी, तर्कसंगत नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया को भारतीय जनता पार्टी प्रणीत नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) के बरक्स देखें तो उसके साथ गये सहयोगी दलों को ज़्यादा नुक़सान हुआ है। महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तो भाजपा ने ही तोड़ा। अकाली दल की भी दुर्गति हुई। फिर, जिस दिल्ली के नतीजों की आड़ में कांग्रेस की आलोचना की जा रही है, उस सन्दर्भ में यह याद दिलाया जाना लाजिमी है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही आप ने ताबड़तोड़ अपने उम्मीदवार घोषित कर दिये थे जबकि कांग्रेस वहां तालमेल की इच्छुक थी। वह चाहती थी कि उसे करीब 15 सीटें दी जायें जो कि वाजिब मांग थी। जिस प्रकार से आज़ाद कहते हैं कि उनके राज्य में अकेली ममता या टीएमसी भाजपा से निपटने के लिये काफी है, कुछ वैसा ही गुमान आप को भी था। यह तो सही है कि पिछली दो बार की तरह इस बार भी कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली लेकिन आप ने कांग्रेस को साथ न लेकर सरकार गंवाई है- यह अब साफ़ हो गया है। कम से 15 सीटें ऐसी थीं जिन पर यदि दोनों मिलकर लड़ते तो वे सीटें गठबन्धन के खाते में आतीं।

जहां तक महाराष्ट्र व हरियाणा का मसला है, यह नहीं भूलना चाहिये कि इन राज्यों में चुनाव सम्बन्धी बड़ी गड़बड़ियों का संदेह है। महाराष्ट्र में लोकसभा से विधानसभा चुनावों के बीच जिस प्रकार से 72 लाख मतदाता बढ़ गये, वह सबके ध्यान में है। हरियाणा में प्रारम्भ से आगे चल रही कांग्रेस को जिस तरह से कुछ मिनटों के भीतर मतगणना धीमी कर निपटाया गया, उसे भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। गड़बड़ तो दिल्ली में भी हुई है लेकिन बहस ऐसी दिशा में मोड़ दी गयी है- स्वयं इंडिया के घटक दलों के द्वारा कांग्रेस पर हमला करके, कि यहां चुनावी धांधली पर न किसी का ध्यान जा रहा है और न ही उसे कोई चर्चा में ला रहा है। स्वाभाविकतः यह स्थिति भाजपा, सरकार और चुनाव आयोग के पक्ष में बनती है कि उस पर आरोप लगाने का किसी के पास अवकाश ही नहीं है। कीर्ति आज़ाद भूल जाते हैं कि भाजपा के इशारे पर ऐसी धांधलियां हर उस राज्य में होगी, जहां चुनाव होंगे; बेशक, पश्चिम बंगाल भी उसमें होगा।

ध्यान रहे कि आरोप लगाने वाले ज़्यादातर सहयोगी दल गठबन्धन की सामूहिक आवाज़ बनकर कांग्रेस का साथ देते नज़र नहीं आते, एकाध को छोड़कर। अनेक मुद्दों पर अकेले कांग्रेस ने आवाज उठाई लेकिन उससे पूरा इंडिया लाभान्वित हुआ है। फिर वह चाहे अंबानी-अदानी का मुद्दा हो या जातिगत जनगणना का। संविधान एवं आरक्षण पर भी कांग्रेस लगभग अकेली आवाज़ उठाती रही। गठबन्धन केवल चुनाव को लेकर नहीं हो सकता- विमर्श के स्तर पर भी एकता नज़र आनी चाहिये।

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments