कांग्रेसः बदलाव नहीं कायाकल्प ज़रूरी

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फोटो सोशल मीडिया

-देशबन्धु में संपादकीय 

यह चर्चा ज़ोरों पर है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व बड़े सांगठनिक बदलाव की तैयारी कर रहा है। इस परिवर्तन में किन्हें अहम जिम्मेदारियां मिलेंगी और किन-किन की छुट्टी होगी, इसका खुलासा कहते हैं कि अगले कुछ दिनों में हो सकता है, पर सर्जरी जैसी कार्रवाई एक तरह से न केवल अपेक्षित है बल्कि ज़रूरी भी है। हाल के वर्षों में कांग्रेस ने जो नया रूप अख़्तियार किया है वह गिनती के कुछ नेताओं के बल पर ही है। पार्टी का एक बड़ा हिस्सा अब भी अपना पर्याप्त योगदान नहीं दे पा रहा है। संगठन के वृहत्तर धड़े को सक्रिय किये बिना बड़े नतीजों की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। बताया जाता है कि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, और राहुल गांधी देश भर की इकाइयों समेत बड़े परिवर्तनों को अंतिम रूप दे रहे हैं। उम्मीद यही की जाये कि कांग्रेस का नया स्वरूप हालिया चुनौतियों का मुकाबला करने के लायक हो। ताश के पत्तों की तरह फेंटकर कुछ लोगों को इधर से उधर कर देना पर्याप्त नहीं होगा। मौजूदा हालात में संगठन का कायाकल्प अपरिहार्य है।

पूरी कांग्रेस राहुल गांधी, प्रियंका और मल्लिकार्जुन खरगे पर टिकी हुई है। प्रदेशों के जो बड़े नेता हैं उन्हें भी अपने चमत्कार को बनाये रखने के लिये इन्हीं तीन नेताओं का सहारा लेना पड़ता है। कुछेक को छोड़कर उनके अभाव में ज्यादातर क्षेत्रीय नेता न अपनी चमक बिखेर पाते हैं और न ही चुनाव में अपने दम पर कुछ हासिल कर सकते हैं। पूछा जा सकता है कि उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी भी तो गिनती के दो लोगों पर टिकी हुई है तो यह समझ लेना ज़रूरी है कि उसके पास केन्द्र की सत्ता है और कई प्रदेशों में उसका शासन है। फिर उसके पास कुटिल चालें भी हैं। उसे ऐसे कई अतिरिक्त लाभ है। कांग्रेस में हमेशा से ही विकेन्द्रीकृत नेतृत्व प्रणाली अपनाई जाती रही है। जवाहर लाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी जैसे शक्तिशाली नेताओं के रहते भी नेतृत्व की दूसरी व तीसरी तथा उसके बाद तक की ताकतवर और सक्रिय नेताओं की पंक्ति थी। सम्भवतः राजीव गांधी के चेहरे पर कांग्रेस को जो बहुमत मिला था, उसके बाद निचले क्रम के नेताओं को एक नाम व चेहरे पर टिक जाने की आदत हो गयी।

कांग्रेस को मिली लगातार चुनावी असफलताओं ने भी संगठन को कमज़ोर किया है। इसे मान लेने में कोई बुराई नहीं है। भाजपा द्वारा जिस तरह से कांग्रेस और वह भी खासकर नेहरू-गांधी परिवार पर आक्रमण किये गये, उसने भी संगठन के उन लोगों को भ्रम में डाला व हतोत्साहित किया क्योंकि उनके लिये मानों यह परिवार ही प्राण वायु है जिसके बल पर उनकी अपनी सियासत चलती थी। परिवार के भीतर पार्टी की कमान को बार-बार बदलने से भी संगठन निष्क्रिय होता चला गया था। भाजपा द्वारा बड़े पैमाने पर कांग्रेस के लोगों को तोड़ने का विपरीत असर तो होना ही था और वह हुआ। आज अपेक्षाकृत कमजोर दिखने वाली कांग्रेस इन्हीं तमाम बातों का परिणाम है।

‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे पर सवार होकर 2014 में केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुए नरेन्द्र मोदी 2019 का लोकसभा चुनाव और बड़े शक्तिशाली ढंग से जीतकर आये। इन दो पराजयों से पूरी तरह से निढाल हो चुकी कांग्रेस के बारे में यही सोचा जा रहा था कि उसे नेस्तनाबूद करने के भाजपा के मंसूबे जल्दी पूरे हो जायेंगे- शायद 2024 के ही चुनाव में। इसके विपरीत तकरीबन दो वर्ष कांग्रेस ने अपनी खोई शक्ति को बटोरकर संगठन व विमर्श के स्तरों पर लोगों को एक तरह से आश्चर्यचकित करना प्रारम्भ किया। 15 मई, 2022 को राजस्थान के उदयपुर में आयोजित चिंतन शिविर में संगठनात्मक फेरबदल की ज़रूरत तो महसूस की गयी पर शीर्ष नेतृत्व में कतिपय बदलावों के अतिरिक्त इस दिशा में बहुत काम न हो सका। जो हुआ वह तात्कालिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिये- बेतरतीब सा। जैसे सुनियोजित बदलाव होने चाहिये वैसे नहीं। पार्टी तय नहीं कर पाती थी कि बदलाव तत्काल प्रभाव से लिये जायें या क्रमिक। सम्भवतः असंतोष फूटने के डर से एकाएक बदलाव से कांग्रेस परहेज करती रही है।

चिंतन शिविर के निर्णय के अनुरूप राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली जिसे जबर्दस्त सफलता मिली। इससे संगठन में सक्रियता बढ़ी, आत्मविश्वास लौटा। इस क्रम में आयोजित की गयी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को व्यापक विमर्श से जोड़ा गया। पहली यात्रा नफरत के खिलाफ थी तो दूसरी ने राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय की बात कही। भाजपा द्वारा संविधान पर होते हमलों की बात भी सामने आई तथा किस तरह से वह इसे बदलने की तैयारी में है- यह भी कांग्रेस ने लोगों को समझाया। लोकतंत्र का महत्व, आरक्षण की ज़रूरत तथा जातिगत जनगणना के जरिये लोगों की न्याय तक पहुंच का गणित भी सामान्यजनों को समझ में आने लगा जिसके कारण मोदी का सिंहासन डगमगाया। मौजूदा लोकसभा में भाजपा की सदस्य संख्या ऐसी घटी कि उसे दो दलों (तेलुगु देसम पार्टी व जनता दल यूनाइटेड) के सहारे सरकार बनानी पड़ी।
सियासी घटनाक्रम ने कांग्रेस के नेतृत्व में एक मजबूत प्रतिपक्षी गठबन्धन (इंडिया) बनाया जो कई तरह के उतार-चढ़ाव देख रहा है। अब ऐसी कांग्रेस चाहिये जो सम्पूर्ण विपक्ष की सबसे बड़ी आवाज़ बने। अगर उसे एकला चलना पड़े तो भी वह ताकतवर तरीके से भाजपा का मुकाबला करे। नयी कांग्रेस में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, युवाओं एवं अल्पसंख्यकों को महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां मिलें जिसकी बात कांग्रेस करती रही है। सक्रियता में युवाओं को लजाते खरगे के नेतृत्व में जो संगठन बने वह ऊर्जावान, भयरहित तथा सक्रिय हो।

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