
-राहुल देव
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने युद्ध विराम, शांति स्थापना की पहल, प्रयासों और सफलता का सारा श्रेय खुद ले लिया है। भारत और पाकिस्तान को मौका ही नहीं दिया कि वे अपने तरीके से इसकी घोषणा कर सकें। अब ट्रंप और उनकी सरकार दुनिया में अपनी पीठ ठोकती फिरेगी।
उनके विदेश मंत्री रूबियो ने ट्वीट किया है कि वे और उपराष्ट्रपति जे डी वांस पिछले ४८ घंटे से दोनों देशों के नेतृत्व और अधिकारियों से युद्ध विराम के लिए बात कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा है कि उन दोनों की प्रधानमंत्रियों नरेंद्र मोदी और शरीफ से सीधी बात हो रही थी।
इस घटनाक्रम के अपने सूक्ष्म संकेत हैं। पाकिस्तान के लिए तो अमेरिका के कहने पर अपनी सैनिक कार्रवाई रोक देना कोई असामान्य बात नहीं। आखिर अमेरिका हर कठिन स्थिति में उसका आर्थिक-सामरिक-राजनीतिक मित्र और संबल बन कर दशकों से खड़ा है। पाकिस्तान अपनी सारी महत्वपूर्ण ज़रूरतों के लिए अमेरिका और चीन पर लंबे समय से निर्भर रहा है। उसे एक स्वतंत्र, अपने बल पर दुनिया में खड़े और बढ़ रहे देश के रूप में कोई नहीं जानता।
लेकिन भारत और प्रधानमंत्री के लिए संकेत और संदेश बिलकुल अलग हैं। और यह कहना पड़ेगा कि उनका अंतरराष्ट्रीय सम्मान और कद बढ़ाने वाले नहीं हैं।
सबसे प्रमुख बात यह है कि अब दुनिया के आगे यह स्पष्ट है कि युद्ध विराम भारत की पहल और शर्तों पर नहीं हुआ है। इस युद्ध विराम की आकस्मिकता और एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष द्वारा सबसे पहले इसकी घोषणा हमें पाकिस्तान के समकक्ष बना देती है। ऐसी कोई संभावना हो सकती है, राजनयिक वार्ताएँ चल रही हैं, de-escalate करने के प्रयास हो रहे हैं इसकी कोई भूमिका और पृष्ठभूमि नहीं बनाई गई थी।
पहलगाम नरसंहार के अपराधियों और उनके प्रेरकों-संरक्षकों-समर्थकों को चुन-चुन कर समाप्त करने की गर्वीली उद्घोषणाएँ पूरी नहीं हुई हैं। वे चारों विदेशी आतंकवादी न मारे गए हैं न पकडे़ गए हैं। पाकिस्तान के ३१ आतंकवाद-प्रशिक्षण केन्द्रों में केवल ९ नष्ट हुए हैं। हमारे १८ नागरिकों और कुछ सैनिकों ने भी अपनी जान खोकर इस युद्ध में बलिदान किया है। पाकिस्तान में आतंकवाद की अधिसंरचना को समूल नष्ट कर डालने का घोषित लक्ष्य, उसे माकूल सबक सिखाने का लक्ष्य, आतंकवाद को बढ़ावा देने की कीमत उसके लिए असहनीय बना देने की घोषित रणनीति अधूरी छूट गई है।
जो भारत और उसके अभूतपूर्व-असाधारण नेता अपने आप को विश्व में चल रहे बड़े युद्धों, संघर्षों को रुकवाने, सुलझाने में प्रभावी भूमिका निभाने वाले विश्वनेता/विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने की व्यापक तैयारियाँ और प्रयास कर रहे थे वे अपने ही पड़ोसी से युद्ध जैसे संघर्ष को केवल अपनी पहल, प्रयासों और नीति से सुलझा नहीं पाए, किसी दूसरे देश/देशों की मध्यस्थता और पहल स्वीकार करने को बाध्य हुए इस तथ्य से बचा नहीं जा सकेगा।
लेकिन ये सब व्याख्याएँ बाद में विस्तार से की जाएँगी। अभी तो युद्ध विराम के अकुंठ स्वागत का समय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)
(विष्णु बैरागी की वॉल से साभार)