अरावली पर्वतमाला के साये में बूंदी के क्या कहने!

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बूंदी स्थित गढ़ पैलेस को भारत के सबसे बड़े महलों में गिना जाता है। यह महल तीन शताब्दियों की अवधि में विभिन्न शासकों द्वारा निर्मित कई महलों का एक संग्रह है। राजस्थान पर्यटन विभाग की वेबसाइट के अनुसार गढ़ पैलेस अपनी राजपूत वास्तुकला के लिए जाना जाता है, जो यहाँ के झरोखों और स्तंभों में आसानी से दिखाई देती है, जिनमें से कई पर हाथियों की नक्काशी है। यहाँ के कुछ प्रसिद्ध महलों में छत्र महल, फूल महल और बादल महल शामिल हैं, लेकिन सबसे प्रसिद्ध चित्रशाला है, जिसमें एक आकर्षक मंडप और लघु भित्ति चित्रों की गैलरी है।

 

-शैलेश पाण्डेय-

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विशाल रेगिस्तान, महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं और महारानी पद्मनी के नेतृत्व में हुए जौहर जैसे ऐतिहासिक कारणों और मारवाड़ियों के व्यवसाय कौशल तथा चित्तौड और आमेर जैसे अभेद फोर्ट से वीर प्रसूता राजस्थान की पहचान रही है। लेकिन 60 के दशक में जब चंबल नदी के किनारे बसे कोटा में नए नए उद्योग खुलने से इसे औद्योगिक नगरी के तौर पर पहचान मिली तो बड़ी संख्या में देश भर से प्रवासी आए। जब वे अवकाश में अपने गृह प्रदेश जाते थे तब यह बताने पर कि कोटा से आए हैं तो अधिकतर यही पूछते थे, यह शहर कहां है। क्या बूंदी कोटा वाला कोटा। यानी कोटा की पहचान बूंदी से थी। आज भले ही बूंदी अपने नाम के अनुरूप तरक्की नहीं कर पाया हो लेकिन हाडोती आने वाले विदेशी पर्यटकों में यह आज भी पहले स्थान पर है। हो भी क्यों नहीं आखिर करीब तेरह सौ साल पहले अरावली पर्वत श्रंखला की तलहटी में बसाया गया यह शहर अपने नैसर्गिक सौंदर्य, पुरातत्व और चित्रकला शैली के कारण अलग ही स्थान रखता है। फिर यह महाकवि सूर्य मल्ल मिश्रण का शहर है जिन्होंने वंश भास्कर जैसे डिंगल काव्य ग्रंथ की रचना की है। मेरा बूंदी शहर कई बार आना जाना रहा। कई बार मैच खेलने के लिए तो कुछ अवसरों पर तीज जैसे मेले देखने गए। यहां के कुछ पिकनिक स्थलों पर भी गए लेकिन कभी ऐतिहासिक गढ़ पैलेस जैसे पर्यटन स्थल पर नहीं जा पाए। जबकि नेचर गाइड और मशहूर फोटोग्राफर एएच जैदी जिन्हें हम जैदी भाई कहते हैं आए दिन पर्यटकों और शोधार्थियों को लेकर बूंदी जाते हैं। वह कई बार साथ चलने का निमंत्रण दे चुके हैं। उनका पारिवारिक कारणों से बूंदी से गहरा नाता है।

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खुशकिस्मती से इन दिनों बेटा अजातशत्रु कोटा आया हुआ है। शुक्रवार को अचानक उसने कह दिया आप मेरे पास दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद आते हो तो एक एक जगह घुमाता हूं। दिल्ली में तो अब कोई जगह ही नहीं बची। आपके कोटा आओ तो केवल दशहरा मेला या ज्यादा से ज्यादा रिवर फ्रंट दिखा दिया। बाकी समय घर में घुसे रहो। उसके उलाहने पर हमने चंबल गार्डन, जल महल से लेकर सिटी पार्क तक के स्थान गिनाए लेकिन श्रीमान ने इनमें कोई रूचि नहीं दिखाई। इस पर नीलम जी ने यह सोचकर बूंदी का प्रस्ताव रखा कि वहां किले और तालाब हैं जिनमें बेटे की रूचि है। हमारे जननायक अखबार के साथी पत्रकार सावन कुमार टांक का ससुराल बूंदी में है और वहां से वाकिफ हैं इसलिए उनका साथ सोने पर सुहागा होता। उन्हें तुरंत साथ चलने के लिए सूचित कर दिया। सावन ने भी आज्ञाकारी अनुज की तरह बगैर आगा पीछे सोचे हामी भर दी। यह बात दूसरी है कि बगैर ससुराल वालों से मिले जब कोटा आए होंगे तब घर में उनकी क्या हालत हुई होगी यह पूछने पर ही मालूम पड़ेगा।

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कहा जाता है कि सावन का महीना और हल्की रिमझिम में बूंदी का नैसर्गिक सौंदर्य खुलकर सामने आता है। पहाड़ों पर फैली हरियाली और प्रसिद्ध तालाबों में लबालब भरा पानी और खिले कमल मन मोह लेते हैं। फिलहाल बारिश का दौर खत्म होने के बाद गर्मी और उमस हो गई है। रविवार सुबह करीब नौ बजे हम कोटा से कार द्वारा रवाना हुए और बूंदी की संकरी गलियों में चक्कर काटते हुए गढ पैलेस तक पहुंचे तब तक दोपहर हो चुकी थी और सूर्य तेजी के साथ आसमान पर चमक रहा था। पहले ही पता लगा लिया था इसलिए ठण्डे पानी की बोतल साथ रख ली थीं। कार पार्क करने के बाद टिकट लेकर आगे बढ़े तो चढ़ाई देख होश उड़ गए। वहां मौजूद गार्ड ने सचेत कर दिया था कि संभलकर चलें क्योंकि चढ़ाई के रास्ते में चिकने पत्थरों से फिसलने का खतरा है। पहले तो नीलम जी घबराकर वहीं रूकने और हमें किला देखने के लिए जाने को कहने लगीं। लेकिन सावन कुमार के साहस बंधाने पर किसी तरह राजी हो गईं। जब तक गढ पैलेस के मुख्य द्वार पर पहुंचे तब पता चला कि बूंदी के इस गढ पैलसे को सबसे सुरक्षित क्यों कहा जाता था। लेकिन पूर्व के राजाओं की सुरक्षा व्यवस्था से हम दोनों मियां बीबी के कस बल निकल चुके थे। अब बेटे अजात का यह कथन समझ आ रहा था कि पर्यटन का सही वक्त जवानी होती है। अजात को अपनी प्रोफेशनल लाइफ में जब भी अवकाश मिलता है उसी के अनुरूप देश विदेश में घूमने को प्राथमिकता देता है।

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बूंदी किले का मुख्य द्वार बहुत भव्य और कलात्मक नक्काशी से युक्त है। वहां की हमारी फोटो सोशल मीडिया साइट पर देखकर राजस्थान पत्रिका अलवर में सहयोगी रहीं ज्योति शर्मा ने भी इसकी कलात्मकता की तारीफ की जबकि अलवर अपने आप में राजस्थान के सर्वाधिक नैसर्गिक सौंदर्य और कलात्मक पुरातत्व स्थलों में से एक है। इसके म्यूजियम में बाबरनामा जैसी कृति मौजूद है। जो दुनिया में केवल दूसरी है।

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किले के मुख्य प्रवेश द्वार के पास मौजूद सुरक्षाकर्मियों से टिकट चैक कराने के बाद आगे बढ़े तो हर जगह सीढ़ियां ही थीं। ये भी सीढ़ियां पुराने समय के खाते पीते मजबूत कद काठी के लोगों के हिसाब से ज्यादा गेप वाली थीं। जिन पर चढ़ना हम सामान्य लोगों के लिए एवरेस्ट की चढ़ाई से कम नहीं था। लेकिन जैसे ही मुख्य महलों छत्र महल, फूल महल और बादल महल में पहुंचे कलात्मक कक्ष, स्वचालित फौव्वारा इत्यादी देख चकित रह गए। यहां की चित्रशाला में वॉल पेंटिंग का खजाना खुल गया। हालांकि पेंटिग काफी हद तक नष्ट हो चुकी हैं लेकिन उनको देखकर लगता है कि कितने कलाकारों ने किस हुनर से इन्हें रंग रोगन और कूंची से आकर्षक रूप दिया होगा। यह देखकर अफसोस हुआ कि प्रकृति और समय ने तो पेंटिंग को नष्ट किया लेकिन इस कीमती विरासत को बर्बाद करने में हम पर्यटक भी कम नहीं। ऐसा लगता था कि लोगों ने इन्हें हाथों से खरोंचकर देखा कि यह वाकई वॉल पेंटिंग है या नहीं। यही हाल कांच जड़ित कक्ष में देखने को मिला। लोगों ने दीवार में जड़ित कांच के टुकड़ों तक को खरोंच दिया। दीवारों पर जो कला की गई है उनसे कांच निकलने से विद्रुप नजर आती हैं। राजपूतकालीन वास्तुकला के खम्बे, हाथी और उन पर की नक्काशी देखने लायक थी।

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किले के उपर से बूंदी को देखना अपने आप में अनूठा अनुभव है। ऐसे तो आम धारणा है कि बूंदी को छोटा कस्बानुमा है लेकिन यहां से उसका वैभव नजर आता है। जैसे समान आकार के मकान हों जबकि ऐसा है नहीं। यदि इन्हें एक ही कलर में रखा जाए तो पर्यटकों के लिए बहुत अच्छा अनुभव हो सकता है।

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किले से आसपास फैली अरावली पर्वतमाला आपको प्रकृति के झंझावतों से सुरक्षा का अहसास करा देती है। यदि आप फोटोग्राफी या चित्रकारी में थोड़ी भी रूचि रखते हैं तो यहां घंटों बिता सकते हैं। इन दोनों विधाओं के लिए ऐसी जगह आसानी से नहीं मिलती। गर्मी में पसीने से तरबतर हम लोगों ने किला देखने के बाद अगले पड़ाव सुखमहल का रूख किया। किले में चढ़ने में जितनी परेशानी हुई थी उसके मुकाबले उतरते समय आसानी रही लेकिन फिसलने का खतरा ज्यादा था। रेलिंग और सांकल की वजह से उसके सहारे नीचे आसानी से आ गए। रविवार को कांस्टेबल परीक्षा थी इसलिए सैकडों छात्र बूंदी आए थे। वे भी बचे समय में किला देखने पहुंचे थे। लेकिन जब सौ रूपए टिकट दर सुनते तो चौंक जाते। बेरोजगार के लिए इतना पैसा देना बहुत मुश्किल है। जब हम बेरोजगार थे उस समय के अनुभव याद आ गए लेकिन जो भी किला देखने जा रहे थे उनका उत्साह और फुर्ती देखने लायक थी।

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