जलवायु सम्मेलन : बड़े देशों पर निगाहें

pollution on earth
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-देशबन्धु में संपादकीय 

 

अज़रबैजान की राजधानी बाकू में सीओपी-29 के नाम से जलवायु सम्मेलन हो रहा है जिसमें 200 देश हिस्सा ले रहे हैं। 11 नवम्बर से प्रारम्भ हुआ सम्मेलन 22 तारीख तक चलेगा। ‘काॅन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़’ कहलाने वाले ऐसे सम्मेलनों की शुरुआत 1995 में जर्मनी की राजधानी बर्लिन से हुई थी। इस श्रृंखला में यह 29वां जमावड़ा है जिसमें सभी देश जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली समस्याओं के आकलन के साथ पृथ्वी का तापमान नियंत्रित करने के बारे में चर्चा करेंगे। भारत विकसित देशों की ज़िम्मेदारी तय करने का पक्षधर है।

20वीं शताब्दी के छठे व सातवें दशक में प्रदूषण घटाने तथा पर्यावरण संरक्षण को लेकर वैश्विक चिंताएं प्रकट हुई थीं लेकिन सघन एवं सामूहिक प्रयास 90 के दशक के आरम्भ से दिखे। तभी से जलवायु परिवर्तन की गम्भीरता की ओर दुनिया का अधिक ध्यान गया। माना गया कि यह बहुत चिंताजनक है जिस पर सामूहिक प्रयासों की ज़रूरत है। सीओपी के अलावा ‘अर्थ समिट’ जैसे विभिन्न मंचों से नीले ग्रह को गर्म होने से बचाने हेतु गम्भीर प्रयासों की ज़रूरत बतलाई जाती रही। राष्ट्रसंघ के कई सत्र भी इसे लेकर हो चुके हैं। सीओपी के पिछले सभी सम्मेलनों में अनेक प्रकार की बातें हुईं। बर्लिन के अलावा 1997 में जेनेवा (स्विटजरलैंड), 2005 में क्योटो (जापान), 2010 में कानकुन (मैक्सिको) और 2013 में वारसा (पोलैंड) में हुए सम्मेलन जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के लिहाज़ से अहम रहे, परन्तु मील का पत्थर साबित हुआ पैरिस (फ्रांस) में आयोजित 2015 का सीओपी 21 सम्मेलन। इसमें शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य रखा गया तथा 196 देशों ने इसे समझौते के रूप में स्वीकार किया जो सभी देशों पर बाध्यकारी है।

जिस अमेरिका ने क्योटो सम्मेलन में इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था, उस पर 2020 में राष्ट्रपति बनते ही जो बाइडेन ने हस्ताक्षर कर दिये थे। उनके पूर्ववर्ती और अब पुनः राष्ट्रपति बन गये डोनाल्ड ट्रम्प का रुख इसे लेकर क्या होगा, यह देखना होगा क्योंकि वे दुनिया में प्रदूषण का ठीकरा विकासशील एवं अविकसित देशों पर फोड़ते रहे हैं। स्वयं बड़े कारोबारी होने के नाते वे विकसित तथा औद्योगिक देशों के पक्षधर माने जाते हैं। अन्य दो ताकतवार देश- चीन व रूस का रवैया भी इस विषय पर ढुलमुल रहा है क्योंकि इन दोनों ही देशों में उद्योग एवं व्यवसायों से बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है परन्तु वे इसे न्यायोचित बताते रहे हैं; और उनकी इस विषय पर आलोचना का साहस कम ही हो पाता है। जब तक बड़े और शक्तिशाली देश भी जलवायु परिवर्तन के कारकों पर ईमानदारीपूर्वक लगाम नहीं लगाते, दुनिया का तापमान कम करने के प्रयास अधूरे रहेंगे।

1990 की शुरुआत से लागू नयी वैश्विक अर्थप्रणाली से इस समस्या के तार तो जुड़े हुए हैं ही, अंतरराष्ट्रीय मतभेदों में भी यह विषय उलझकर रह गया है। पृथ्वी का तापमान न घटने के लिये विकसित एवं विकासशील देश परस्पर दोषारोपण कर जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डाल रहे हैं। बहुत से विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्रदूषण बढ़ने का प्रमुख कारण जीडीपी में वृद्धि की लालसा है। विकास के नाम पर की जा रही अनेक तरह की गतिविधियों में तीव्र कार्बन उत्सर्जन होता है जो तापमान बढ़ाने का प्रमुख कारक है। इतना ही नहीं, उत्पादन बढ़ाने हेतु किये जा रहे अनगिनत मानवीय उपक्रम ग्रीन हाउस प्रभाव को सतत बढ़ा रहे हैं। इस बढ़ते तापमान के परिणामों का दुनिया भली-भांति अनुमान लगाये बैठी है और उसके कारण जो त्रासदियां होंगी उस पर स्कूलों में सामाजिक विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, भूगोल जैसे विषय पढ़ने वाले बच्चे तक वाकिफ़ हैं, परन्तु फिर भी यह विशेषज्ञों की बहसों का सबब बना हुआ है। माना जा रहा है कि जिस प्रकार से घरों में लगे करोड़ों की संख्या में एयर कंडिशनरों से लेकर विशालकाय उद्योग और बड़ी तादाद में दुनिया भर की सड़कों पर दौड़ते ईंधन वाले वाहनों से लेकर परमाणु बिजली संयंत्रों से पर्यावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है, उससे यदि पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री तक और बढ़ता है तो विश्व के ज्यादातर ग्लेशियर पिघल जायेंगे। इसके चलते विश्व भर में समुद्र के किनारे बसे 50 से अधिक शहर जल समाधि ले लेंगे।

इस सम्मेलन में अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा होने जा रही है। इसमें प्रमुख है विकासशील देशों को वित्तीय मदद ताकि वे वातावरण में हो रहे परिवर्तन को रोकने के लिये विभिन्न उपायों पर खर्च कर सकें। जलवायु वित्त कार्य निधि (सीएफएएफ) के नाम से यह अंतरराष्ट्रीय कोष स्थापित होगा जिसका मुख्यालय बाकू में होगा। दूसरा मुद्दा है ग्रीन एनर्जी ज़ोन एंड कॉरिडोर स्थापित करना। इसके तहत निवेश को बढ़ावा देते हुए आर्थिक विकास की गति बढ़ाने के उपाय होंगे। बुनियादी अधोरचना, आधुनिकीकरण, विस्तार आदि के जरिये क्षेत्रीय सहयोग को प्रोत्साहित किया जायेगा। ऊर्जा भंडारण की वैश्विक क्षमता को बढ़ाने के नये लक्ष्य तय किये गये हैं। 2022 की स्थापित क्षमता को 6 गुना बढ़ाकर 1500 गीगावाट तक बढ़ाया जायेगा। 2040 तक 80 मिलियन किलोमीटर को ऊर्जा ग्रिड के तहत लाने का लक्ष्य है। स्वच्छ हाइड्रोजन, ग्रीन डिजिटल एक्शन आदि इस सम्मेलन के एजेंडा में हैं।

भारत अपना पक्ष 18-19 नवम्बर को रखेगा जिसकी इस विषय को लेकर अपनी ही चिंताएं और अपेक्षाएं हैं। वह भी विकसित देशों की जिम्मेदारी तय करने का पक्षधर है। वैसे वैश्विक मंचों पर भारत चाहे जो कहे, उसे स्वयं अपने स्तर पर यानी देश के भीतर जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिये ईमानदार पहल करने की आवश्यकता है। भारत दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित देशों में से एक है. फिलहाल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले लोग इस प्रदूषण का कहर झेल रहे हैं।

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