ये लड़ाई है दिये की और तूफान की, जिसमें दिया सुप्रीम कोर्ट जाकर जीता!

-सुनील कुमार Sunil Kumar

एक आदिवासी ग्राम पंचायत की युवती सरपंच को हटाने पर आमादा अफसरों पर खफा होते हुए सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को इस सरपंच को एक लाख रूपए हर्जाना देने कहा है, और उसे बाकी पूरे कार्यकाल के लिए दुबारा सरपंच बनाया है। ग्राम पंचायत में चल रहे निर्माण कार्यों में देरी की शिकायत करते हुए अधिकारियों ने इस सरपंच को बर्खास्त कर दिया था, और छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बर्खास्तगी को सही ठहराया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर बड़ा कड़ा रूख अख्तियार किया है, और सरकार को जमकर फटकार लगाई है। अदालत ने यह भी कहा है कि बाबू से अफसर बना दिए गए लोगों ने एक निर्वाचित महिला सरपंच को परेशान किया, और मुकदमेबाजी में जबर्दस्ती उलझाकर रखा। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव को कहा है कि इस सरपंच को परेशान करने के जिम्मेदार अधिकारी और कर्मचारी मालूम करने के लिए जांच करे, और चाहे तो एक लाख का जुर्माना इनसे वसूले, लेकिन अभी से चार सप्ताह के भीतर इस सरपंच को सरकार एक लाख रूपए हर्जाना दे।

जशपुर से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे इस मामले में सजबहार की 27 बरस की सोनम लकरा 2020 में चुनाव लडक़र सरपंच बनीं। ग्राम पंचायत में कई निर्माण कार्य शुरू किए गए, और जनपद पंचायत के सीईओ ने इन्हें तीन महीने में पूरे करने का नोटिस जारी किया। सरपंच पर निर्माण कार्य में देरी का आरोप लगाया, और सरपंच के स्पष्टीकरण के बाद उन्हें जनवरी 2024 में सरपंच के पद से हटा दिया गया। तारीखों से जाहिर है कि बर्खास्तगी की पूरी कार्रवाई पिछली भूपेश सरकार के दौरान हो गई थी, और प्रदेश की मौजूदा विष्णु देव साय सरकार के आते ही जिले के एसडीएम के स्तर पर यह आदेश जारी हुआ। सरपंच की बर्खास्तगी का आदेश एसडीएम के स्तर पर होता है, और कार्रवाई की पूरी फाईल इसके भी नीचे, बीडीओ के स्तर पर ही तय हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह बात कही है कि कुछ क्लर्क जिन्हें पंचायत सीईओ के रूप में पदोन्नत किया गया है, वे चाहते हैं कि सरपंच उनके सामने भीख का कटोरा लेकर आएं। अदालत ने सरकारी वकील पर भी नाराजगी जाहिर की। सरपंच सोनम लकरा ने उन्हें मिले नोटिस के जवाब में यह स्पष्ट किया था कि दिसंबर 2022 में मंजूर काम उन्हें ग्राम पंचायत सचिव से मार्च 2023 में मिला, और उसके बाद गिने-चुने महीनों में उसे पूरा करना मुमकिन ही नहीं था, लेकिन उनका स्पष्टीकरण छोटे-छोटे अधिकारियों ने खारिज कर दिया, और उन्हें बर्खास्तगी की कार्रवाई कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने इतना कड़ा रूख दिखाया है कि अपने फैसले में लिखा है कि यह एक निर्वाचित सरपंच को हटाने के लिए अधिकारियों की बददिमागी बताता है। अदालत ने कहा कि छत्तीसगढ़ के एक दूर के इलाके में अपनी गांव की सेवा करने के लिए एक नौजवान महिला चुनाव लडक़र सरपंच बनती है, और उसकी मदद करने के बजाय पूरी तरह से नाजायज कुतर्क देकर उसे ही हटा दिया गया है। उसकी मानसिक प्रताडऩा करने के लिए जिम्मेदार सरकार की भी जजों ने जमकर खिंचाई की है।

अब जमीनी हकीकत अगर देखें तो अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में आदिवासी विकासखंडों में पंचायतों को आदिम जाति कल्याण विभाग के मातहत रखा गया है। पंचायतों के लिए एक-एक पैसा पंचायत विभाग से आता है, लेकिन इस विभाग का कोई भी नियंत्रण न तो निर्वाचित लोगों पर रहता, और न ही पंचायत के स्थानीय अधिकारियों पर, जो कि आदिम जाति विभाग के तहत काम करते हैं। नतीजा यह होता है कि बजट देने के लिए जिम्मेदार विभाग के प्रति पंचायत के निर्वाचित लोगों, या उन्हें नियंत्रित करने वाले आदिम जाति कल्याण विभाग के स्थानीय अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं होती। छत्तीसगढ़ में 146 विकासखंड हैं, जिनमें से 85 विकासखंड आदिवासी इलाके हैं, और यहां पंचायतों का सारा काम आदिम जाति विभाग के तहत होता है। जशपुर का यह मामला ऐसा ही मामला है जिसमें सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि बाबुओं से अधिकारी बना दिए गए लोग निर्वाचित सरपंच को प्रताडि़त कर रहे थे। आदिम जाति कल्याण विभाग में हालत यह है कि पंचायतों को काबू करने वाले पदों पर यह विभाग कहीं किसी बाबू को बिठा देता है, तो कहीं किसी शिक्षक को। और उन्हें सरपंचों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई के लिए नियमों की भी ठीक से जानकारी नहीं रहती है, और अदालत तक जाने पर उनकी कार्रवाई बड़ी ही कमजोर साबित होती है जिसकी कोई कानूनी बुनियाद नहीं रहती।

राज्य में बड़े अफसरों और बड़े नेताओं के बीच यह बात बड़ी आम रहती है कि सरपंच भ्रष्ट रहते हैं, और अब 50 लाख तक के निर्माण कार्य सरपंचों के माध्यम से होते हैं। इस बारे में कुछ दूसरे जानकार लोगों का यह मानना है कि पंचायती राज व्यवस्था से न सिर्फ अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हुआ है, बल्कि भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण हुआ है। आज अगर सरपंचों में से कुछ, अधिक या अधिकतर भ्रष्ट हैं, तो जब तक पंचायतों के फैसले बड़े हाथों में रहते थे, तो उनमें से भी अधिकतर भ्रष्ट रहते थे। सरकारी निर्माण कार्य सरपंचों के हाथ आने के बाद पहली बार भ्रष्टाचार के शिकार हुए हों, ऐसा भी नहीं है। सरकार के सभी विभाग चाहे पंचायत स्तर की बात करें या राज्य सरकार के स्तर की बात करें, भ्रष्टाचार सभी जगह एक बराबर रहता है। जब अधिकारों को ऊपर कुछ हाथों में समेट दिया जाता है तो भ्रष्टाचार भी वहीं सिमट जाता है और स्थानीय छोटे निर्वाचित लोगों तक अधिकार जाते हैं तो भ्रष्टाचार का अधिकार भी वहां तक चले जाता है। इसलिए सरपंचों के स्तर पर भ्रष्टाचार अधिक होने का तर्क अधिक दमदार नहीं है। हमने बहुत से विभागों में प्रदेश स्तर पर होने वाली खरीदी में एकमुश्त, आला दर्जे का भ्रष्टाचार देखा है।

दरअसल अफसरों और बाबुओं की स्थाई व्यवस्था इस बात को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाती है कि कल तक फुटपाथ पर पैदल चलने वाले लोग अब सरपंच, या जिला पंचायत के निर्वाचित पदाधिकारी बन गए हैं, और अधिकारों के साथ-साथ कमाई की ताकत भी अफसरी हाथों से निकलकर निर्वाचित हाथों तक चली गई है। भ्रष्टाचार को रोकना एक अलग मुद्दा है, और उसके लिए कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन ऐसे कितने सरपंच होंगे जो कि जशपुर के एक गांव से निकलकर हाईकोर्ट में एक गलत शिकस्त पाकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचें और वहां से अपनी बर्खास्तगी खत्म करवाएं और मुआवजा पाएं। इस एक मामले को राज्य सरकार के पंचायत, आदिम जाति कल्याण विभाग, और जिला कलेक्टरों को गंभीरता से देखना चाहिए और इसे एक सरपंच का मामला मानकर नहीं चलना चाहिए, बल्कि पूरे प्रदेश में लोकतांत्रिक नजरिए से पंचायती व्यवस्था को देखना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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