ट्रम्प के विरुद्ध यूरोपीय एकता से वैश्विक शक्ति संतुलन बदल सकता है

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फोटो सोशल मीडिया

रविन्द्र बाजपेयी Ravindra Bajpai

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ये पहला अवसर है जब अमेरिका के विरोध में रूस या चीन जैसे उसके परंपरागत प्रतिद्वंदी नहीं वरन यूरोप के वे तमाम देश खड़े हो गए हैं जो कल तक उसके झंडे तले खुद को सुरक्षित समझते थे। इसका कारण बना बीते सप्ताह वॉशिंगटन में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के बीच हुई गर्मागर्मी के बाद जेलेंस्की का ब्रिटेन आना और वहाँ तमाम यूरोपीय देशों के शिखर सम्मेलन में रूस के साथ चल रहे युद्ध में यूक्रेन को आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान करने का सामूहिक निर्णय होना। ट्रम्प द्वारा जेलेंस्की के साथ किये गए अपमानजनक व्यवहार के बाद यूरोप के लगभग सभी देशों के यूक्रेन के पक्ष में मजबूती से खड़े हो जाने को वैश्विक राजनीति में बड़ी घटना के तौर पर देखा जा रहा है। उल्लेखनीय है इन देशों में ब्रिटेन और फ्रांस के पास सं.रा.संघ सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार है। हालांकि रूस के हमले से निपटने के लिए यदि अमेरिका यूक्रेन को अस्त्र – शस्त्र और धन नहीं देता तब वह कभी का घुटने टेक चुका होता। अमेरिका का प्रभाव कहें या दबाव कि यूरोपीय देश भी रूस के विरोध में यूक्रेन के बचाव में आ गए। अमेरिका द्वारा रूस पर लगाए गये आर्थिक प्रतिबंधों को भी इन देशों ने समर्थन दिया जिसके कारण उन्हें गैस, पेट्रोल – डीजल और खाद्यान्न का भारी संकट झेलना पड़ा। गौरतलब है कभी रूस के पिट्ठू रहे हंगरी और पोलैंड भी इस जंग में यूक्रेन के साथ हो गए। इसका कारण रूसी राष्ट्रपति पुतिन की विस्तारवादी सोच है। डेनमार्क जैसा देश भी पुतिन की धमकियों के कारण आतंकित है। यही वजह है कि यूक्रेन ने जब नाटो संधि से जुड़ना चाहा और रूस ने इसे बहाना बनाकर उस पर चढ़ाई कर दी तब अमेरिका के कहने पर लगभग सारे के सारे यूरोपीय देश यूक्रेन की मदद के लिए खुलकर सामने आये। लेकिन बीते जनवरी माह में ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वापसी के बाद से अमेरिका की विदेश नीति ने जिस तरह की करवट ली वह चौंकाने वाली रही। ट्रम्प ने जेलेंस्की पर युद्ध के दौरान दी गई आर्थिक सहायता के एवज में यूक्रेन की बहुमूल्य खनिज संपदा का सौदा करने के साथ ही युद्ध विराम का दबाव बनाया । और ऐसा नहीं करने पर उसकी मदद के लिए हुए खर्च की भरपाई करने की शर्त रख दी। कहते हैं जेलेंस्की उसके लिए राजी भी थे किंतु जब अपने देश की सुरक्षा की गारंटी मांगी तो ट्रम्प ने उन्हें दुत्कार दिया। यद्यपि जेलेंस्की ने भी उस दौरान कूटनीतिक अनुभवहीनता का परिचय दिया । ये कहना भी गलत नहीं है कि मौजूदा हालात में जेलेंस्की की स्थिति याचक जैसी है जिसमें वे अपनी शर्त पर अमेरिका से समझौता नहीं कर सकते। वैसे ट्रम्प का रवैया भी बेहद गैर जिम्मेदाराना कहा जाएगा क्योंकि अमेरिका के बलबूते ही यूक्रेन ने रूस जैसी महाशक्ति से टकराने का दुस्साहस किया था। ऐसे में राष्ट्रपति बदलने के बाद विदेश नीति में अचानक इस तरह का परिवर्तन किसी देश की साख को प्रभावित कर सकता है। और अमेरिका भी उसका शिकार हुआ है। यूरोप का संगठित होकर यूक्रेन के साथ खड़ा हो जाना कोई साधारण घटना नहीं है। दरअसल दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही ट्रम्प द्वारा यूरोप पर जिस तरह धौंस जमाना शुरू किया गया उससे वहाँ के देश चौकन्ने हो गए। वे यूरोप पर भी अमेरिकी हितों के अनुरूप आचरण करने का जो दबाव बना रहे थे उससे अमेरिका के बेहद नजदीक समझा जाने वाला ब्रिटेन तक असहज महसूस कर रहा था। यूक्रेन की मदद के लिए ब्रिटेन की पहल पर ट्रम्प द्वारा वहाँ के प्रधानमंत्री से जिस लहजे में बात की गई उसे बदतमीजी ही कहा जायेगा। यही वजह रही कि वॉशिंगटन से अपमानित होकर लौटे जेलेंस्की सीधे लंदन गए जो रातों – रात यूरोपीय एकता का केंद्र बन गया। हालांकि यूरोपीय देश अभी भी अमेरिका की मिजाजपुर्सी कर उसकी नाराजगी से बचना चाह रहे हैं किंतु ट्रम्प द्वारा हड़काए जाने के बावजूद ब्रिटेन ने जिस दबंगी से यूक्रेन को बड़े पैमाने पर आर्थिक और सैन्य सहायता देने का ऐलान किया और अन्य यूरोपीय देश भी उसी तरह की दरियादिली दिखाते हुए सामने आये वह अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। ट्रम्प द्वारा एक साथ ढेर सारे मोर्चे खोलने से अमेरिका उस स्थिति में फंस गया है जहाँ से न तो वह बहुत आगे बढ़ पाएगा और पीछे हटने पर उसकी साख तथा धाक दोनों को धक्का लगेगा। यूरोपीय देशों का ट्रम्प द्वारा पल्ला झाड़ लेने के बाद भी यूक्रेन के पीछे मजबूती से खड़ा हो जाना कूटनीति के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को भी काफी हद तक प्रभावित करेगा। यदि ट्रम्प सोच रहे हों कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ मिलकर दुनिया को मुट्ठी में कर लेंगे तो वे धोखे में हैं क्योंकि रूस और चीन कभी भी अमेरिका के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करेंगे। ये भी विचारणीय है कि पुतिन और जिनपिंग ने जहां जीवन पर्यंत सत्ता में बने रहने का इंतजाम कर लिया है वहीं ट्रम्प के पास चार साल से भी कम समय है और कूटनीति में ये बात बेहद महत्वपूर्ण होती है।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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