गुजरात से गूंजी दुंदुभि का भवितव्य

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-पंकज शर्मा Pankaj Sharma

गुजरात में हुए कांग्रेस के 86 वें अधिवेशन ने पांच बातें साफ कर दी हैं। एक, राहुल गांधी सत्ता हासिल करने की हड़बड़ी में नहीं हैं और वे भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की तवील-ए-मुद्दत जंग लड़ रहे हैं। दो, आने वाले दिनों में कांग्रेस अपने लिए एक नए सामाजिक वास्तुशास्त्र की रचना करने में तेज़ी से भिड़ेगी। तीन, आवारा पूंजी के ढलान पर देश की बेलगाम लुढ़कन को थामने के लिए कांग्रेस समाजवादी रुझान वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्ष में व्यापक जनजागरण करने के काम में लगेगी। चार, भारत की भेदभावरहित संस्कृति की पारंपरिक जड़ों में मट्ठा डाल रहे तत्वों से निपटने के लिए कांग्रेस का चरखा चप्पा-चप्पा चलेगा। पांच, प्रशासनिक गलियारों की पिछले दस बरस में प्रदूषित हुई हवा की सफाई के लिए कांग्रेस नए सिरे से हर स्तर पर पर्दाफ़ाश अभियान आरंभ करेगी।

कांग्रेस अधिवेशन में हुई कार्यवाही, विमर्श और अलग-अलग उद्बोधनों ने कुछ और बेलाग संकेत भी दिए हैं। कांग्रेस के संगठन में भारी बदलाव होंगे। मेहनतकश रहेंगे। हवाबाज़ विदा होंगे। सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। नीति निर्धारण और फ़ैसलों का झरना ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर की तरफ़ बहेगा। ज़िलों के अध्यक्ष और ज़िला समितियां आधार शिलाएं बनेंगी। कंगूरों का एकाधिपत्य विरल होगा। कांग्रेस के अग्रिम संगठन पुनर्यौवन प्राप्त करेंगे। पार्टी के विभिन्न विभागों की पुनर्रचना, विलयन और प्रभावी उत्पादकता के ठोस क़दम उठेंगे। पंचायतों, मंडियों और सहकारी समितियों से ले कर विधानसभाओं और लोकसभा के चुनावों की सकल रणनीति बनाने और उम्मीदवारों के चयन की नई क्रियावली आकार लेगी।

अगर यह सब एकबारगी ही हो गया तो कांग्रेस अपने बदन पर लगी धूल झाड़ कर सचमुच खड़ी हो जाएगी। अगर यह किश्तों में आहिस्ता आहिस्ता भी हुआ तो भी कांग्रेस अंगड़ाई लेने लगेगी। मगर अगर अहमदाबाद में ज़ाहिर इरादों पर अमल करने-कराने में राहुल ने कालातीत ध्यान-योगी की मुद्रा अपना ली तो मामला हमेशा की तरह फिर गड्डमड्ड होने लगेगा। नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की ज़र-ए-ज़मीन सुरंग में सीधे हाथ डाल कर राहुल ने भारतीय जनता पार्टी को बेतरह हक्काबक्का कर दिया है। इस से लोगों में कांग्रेस के पुनर्जीवन की बेहद ठोस आस जन्मी है।

इस यक़ीन की आधारभूमि कांग्रेस के लिए ऐसी संजीवनी है, जिस से वह सियासत की वर्तमान दौड़ में स्वयमेव ही पहले से चार क़दम आगे जा कर खड़ी हो गई है। उसे जन-मन में अपना यह स्थान बनाए रख कर अगली छलांग लगाने भर की ज़रूरत है।

गुजरात अधिवेशन से मिली इस ऊर्जा को अगर अपने आगामी फ़ैसलों से राहुल ने कांग्रेस की शिराओं में ठीक से प्रवाहित कर दिया तो मुल्क़ का सियासी ऊंट जल्दी ही सही करवट बैठ जाएगा। देश के दिलो-दिमाग़ में ‘मोशा’-जोड़ी के बारे में अब यह बात काफी-कुछ बैठ गई है कि उन की बातें तो बातें हैं, बातों का क्या? जन-चेतना अब इस पर भी ख़ासी आश्वस्त हो चुकी है कि राहुल की बातें, बातें नहीं हैं; उन्होंने जो कहा है, किया है; वे जो कह रहे हैं, करेंगे।

अपने शब्दों की साख के मामले में राहुल निश्चित ही नरेंद्र भाई से मीलों आगे स्थापित हो गए हैं। कांग्रेस की पैदल सेना को इस कुमुक का भरपूर इस्तेमाल ही तो करना है। अगर इस में भी कोताही होती है तो कोई राहुल गांधी भी कांग्रेस का बेड़ा कैसे पार लगा देगा?

बावजूद इस के कि कांग्रेसी कारकूनों की करतूतों का पिछला इतिहास स्याह है, मुझे पक्का विश्वास है कि अहमदाबाद अधिवेशन के बाद अब राहुल अपने को तमाम कुहासे से पूरी तरह बाहर निकाल चुके हैं। वे अपने आसपास धमाचौकड़ी मचा रहे हमजोलियों के प्रति जितने निर्मम होते जाएंगे, कांग्रेस की सेहत उतनी ही बेहतर होती जाएगी।

वे पेशेवराना माहौल को तरज़ीह देते हुए ताली-थाली वादकों से जितना ही दूर होते जाएंगे, कांग्रेस के गाल उतने ही सुख़र्रू होते जाएंगे। छद्म-प्रतिभाओं और पांच सितारा स्टारबक्सियों को वे अपने दस्तरख़्वान पर जितनी ही कम जगह घेरने देंगे, कांग्रेस की मांसपेशियां उतनी ही तंदुरुस्त होती जाएंगी।

कांग्रेस के लिए रास्ता अब भी ज़रा लंबा और थोड़ा मुश्क़िल है और चूंकि राहुल को ख़ुद इस बात का अच्छी तरह अहसास है, इसलिए मुझे लगता है कि यह समय है, जब उन्हें अपनी दो दशक की प्रयोगधर्मी शैली के परिणामों की समीक्षा भी करनी चाहिए। प्रयोगधर्मिता सद्गुण है, मगर बीच बीच में उस के नतीजों का आकलन कर ज़रूरी संशोधन करते रहना भी कोई दुर्गुण नहीं है। सकारात्मक पहलुओं के प्रति आग्रही होने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन नकारात्मक आयामों के लिए दुराग्रही होने में कोई भलाई भी नहीं है।

राहुल के फ़ैसलों का बीस वर्शीय विश्लेषण करने पर मैं ने पाया है कि स्वयं के अंतर्भाव से लिए गए उन के निर्णय तक़रीबन शत-प्रतिशत सही हुए हैं, मगर जैसे ही परिस्थितिवश असहाय हो कर या कनखजूरों के जालबट्टे में फंस कर वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, बड़ा गच्चा खा जाते हैं।

राहुल के रास्ते का ऊबड़खाबड़पन अब लगातार कम होता जा रहा है, मगर आगे की राह अभी इतनी समतल भी नहीं है कि उस पर कांग्रेस फ़र्राटे भरने लगे। सो, राहुल को कांग्रेस की हवेली के द्वारपालों की अधिकार-संपन्नता की लेखा-परीक्षा भी एकदम नए सिरे से करनी चाहिए। उन्हें अपनी पार्टी को ‘ख़ल्क ख़ुदा का, मुल्क़ बादशाह का, हुक़्म शहर कोतवाल का’ के युग से निज़ात दिला कर पारदर्शिता और सामूहिकता के नवयुग में ले जाना होगा।

बिना ऐसा किए वे रायसीना पहाड़ी की चढ़ाई कैसे चढ़ेंगे? वे नसीब वाले हैं कि नक्कालों के ढेर के बीच भी उन के पास ऐसी भावभीनी ज़मीनी सेना है, जो अनंतकाल तक उन के साथ चलने को तैयार है। मगर अंततः तो रायसीना पर्वतारोहण ही राहुल का असली इम्तहान है।

अहमदाबाद की दुंदुभि से निकली बुलंद आवाज़ को नक्कारखाने की तूती बनने से रोकने का एक ही रामबाण है कि राहुल अपने तरकश के तीरों का इस्तेमाल करने में अब एक लम्हे की भी देरी न करें। वे एक साथ दो मोर्चो पर लड रहे हैं। बाहरी पर भी और भीतरी पर भी। यही उन का भवितव्य भी है। सो, तज़बज़ुब कैसा? फेंक, जहां तक भाला जाए!

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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