
– विवेक कुमार मिश्र-

मन, शरीर और दुनिया
सब यात्रा पर निकल जाते
यात्राएं अबाध गति से चलती हैं
एक यात्रा, दूसरी यात्रा का कदम हो जाती
यात्राएं अस्तित्व की गाथा होती हैं
हर यात्रा एक खोज होती
यह बात अलग है कि
यात्रा किस हेतु में हो रही है
किसी यात्रा में कोई बांधा नहीं होता
सब अपनी अपनी यात्रा पर होते हुए
दुनिया की गति में शामिल रहते हैं
और दुनिया है कि
बहुत तेजी से बदल रही है
एक दुनिया तुरंत दूसरी दुनिया हो जाती
जो है वहीं फिर नहीं दिखता
दुनिया इतनी बदल जाती है कि
फिर वहीं दुनिया कहां दिख पाती
दुनिया जाने कहां से कहां चली जाती
दुनिया को किसी भी तरह से देखें
दुनिया बस उतनी ही दिखती है
जो सामने भर होती है और कहते हैं कि
जो सामने है वहीं सब कुछ नहीं है
दुनिया और भी है जिसे देखने के लिए
पैर, मन, आंखें परिक्रमा पथ पर घूमती रहती हैं
घूमते घूमते ही दुनिया का अर्थ करती हैं
और एक समय के साथ अर्थमय संसार लेकर
दुनिया घूमती रहती है,
जरूरी नहीं कि
आप घूमें ही आप नहीं घूमते तो भी
पृथ्वी घूमती रहती है
पृथ्वी पर होते हुए या ग्रहों पर होते हुए
कोई भी स्थिर नहीं होता
जाने कहां से कहां तक की यात्रा में
मन, शरीर और दुनिया यात्रा करती रहती है।
मन अटका रहता है
सब साथ साथ
हंसते खेलते
चलते ही रहते हैं
और इस तरह
एक समय के बाद
दुनिया से ऐसे जुड़ जाते हैं कि
इससे इतर कोई और काम हो ही नहीं
शरीर मन का घर है
यहीं से मन अपने लेखे
दुनिया भर की कहानी
कहते चलता है
शरीर एक समय के बाद
टूटता सा दिखता है
मन टूटते शरीर से
गहरा रिश्ता रखता है
शरीर का हर दर्द
मन सहता है,
मन, मन भर
दर्द से जुड़ता और सहता है,
मन मन की तरह
होते हुए भी जुड़ा रहता है
कहीं से कहीं चले जाएं
पर मन तो यहीं
अटका पड़ा रहता है,
मन अपनी ही दुनिया में
रमा रहता है।
जीना नहीं छोड़ेंगे
पता नहीं कितने कांटे उग जाते हैं
जहां तक देखो कांटे ही कांटे
और इन्हीं कांटों के बीच से
निकलना है, राह आसान नहीं
पर हर मुश्किल, एक दुनिया सौंप जाती है
पता नहीं क्यों लोग मुश्किल हालात में
कुछ ज्यादा ही परेशान हो जाते
कोई कोई तो इतना परेशान हो जाता कि
उसे कोई राह ही नहीं सूझती,
वह मारा मारा फिरता है
इतना हैरान परेशान आदमी
पहले तो नहीं दिखें
हारी बीमारी सब आती थी
और सभी मिलकर कुछ न कुछ
रास्ता निकाल ही लेते
न भी कोई रास्ता निकले तो
भाग्य के भरोसे ही बैठ जाते
कुछ न कुछ प्लान बनाते,
ये न सही, कुछ और कर लेंगे
रुकेंगे नहीं, न ही यूं ही,
हाथ पर हाथ धरे रहेंगे
कुछ भी हो जाएं, जीना नहीं छोड़ेंगे
इस एक वाक्य में लोग जी लेते थे
जिंदगी, औरों को भी जीने का सूत्र दे जाते
पीछे मुड़कर देखता हूं तो बराबर
इस तरह से लोग दिखते हैं कि
हर हाल में जिंदगी के साथ खिलते प्रसन्न होते थे
रुआसे लोग नहीं होते थे,
न ही किसी के रोने का कारण बनते थे
उन सबकी बस एक ही कोशिश होती थी कि
किसी तरह से सभी को हंसा लिया जाएं
जीने के लिए खिलता हुआ शब्द दे जाते थे
बिना बात के ही शहद सी जिंदगी जी लेते
इतना शहद अपने पास बचाकर रखते थे कि
किसी को भी, दुःख न हो,
यदि दुःख आ भी गया तो
दुःख से ज्यादा शहद और मिशरी की
डली लेकर आ जाते थे
लोग-बाग जीने का
हर मुमकिन रास्ता निकाल लेते थे
जब कुछ भी हाथ नहीं होता
तो भी जीना, जीने का बड़ा मकसद था
इस तरह जिंदगी में शहद और मिशरी का घोल
मीठा और गाढ़ा सा घुलता ही जा रहा था।