
-शैलेश पाण्डेय-

मेनाल के नयनाभिराम सौंदर्य से अभिभूत होने के बाद जब वास्तविकता के धरातल पर उतरे तो धीरेन्द्र राहुल भूख से व्याकुल हो रहे थे। हालांकि शाम को छह बजे थे लेकिन उन्होंने मेनाल भ्रमण के चक्कर में एक मित्र की सेवानिवृति उत्सव पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत के बावजूद भोज का मोह त्यागा क्योंकि मैं और रमा जी उन्हें मेनाल भ्रमण में हो रही देरी के लिए फोन पर फोन दागे जा रहे थे। मेनाल में भी केवल मक्का के भुट्टे उपलब्ध थे लेकिन देशी भुट्टे कड़े होने के कारण राहुल जी के काम के नहीं थे। शेष हम तीनों ने तो ये भुट्टे उदरस्थ कर लिए थे। भूख लगी होने के बावजूद राहुल जी का इरादा जैन धर्मावलंबियों के प्रमुख तीर्थ स्थल श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन तपोदय अतिशय क्षेत्र बिजोलिया के दर्शन करने का था। वह पूर्व में भी वहां जा चुके थे इसलिए मेनाल से करीब 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस तीर्थ स्थल पर हमें भी चलने को कहा। मेरी सभी धर्मों में समान आस्था है। मेरी छठी से आठवीं तक की शिक्षा भी जैन समुदाय के संचालित स्कूल में हुई है इसलिए भगवान महावीर के ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत ने बचपन से ही प्रभावित किया। जीवन में जितना संभव हो इस सिद्धांत का पालन करने की भी कोशिश करता रहा हूं। पत्रकारिता काल में सूरत, चेन्नई और बेंगलुरु में जैन समुदाय के लोगों और मुनि और आचार्य से सम्पर्क हुआ इसलिए इसका प्रभाव भी मेरे जीवन पर पड़ा। विशेषकर चेन्नई में मदन लाल जी बोहरा ने तो छोटे भाई जैसा प्यार दिया। उन्होंने ही चेन्नई महानगर में साउथ इंडियन भोजन के वास्तविक स्वाद से मेरा परिचय कराया। वह किसी रेस्तरां की इडली तो किसी के डोसा और किसी के सांभर की खासियत से परिचय कराते। यही कारण है कि चेन्नई छोड़ने के बाद मुझे बेंगलुरु समेत कहीं भी साउथ इंडियन भोजन में मजा नहीं आया। हालांकि दिल्ली और मुंबई में मेरा बेटा अजात वहां के दो तीन प्रसिद्ध साउथ इंडियन रेस्तरां में ले गया जहां लाइन में नंबर आया लेकिन भारी भरकम बिल के बावजूद चेन्नई के छोटे से आउट लेट जैसा स्वाद भी नहीं था। सवार्नन और आनंद भवन जैसे रेस्तरां की बात बहुत दूर की है।
इस बीच राहुल जी क्योंकि पहले ही अतिशय क्षेत्र आ चुके थे इसलिए रास्ते में वह इस तीर्थ स्थल के बारे में अपने पिछले अनुभव बताते रहे। लग रहा था कि करीब आधे घंटे में हम तीर्थ स्थल पहुंच जाएंगे लेकिन बीच में टोल नाका बाधा बन गया। वहां वाहनों की भीड़ थी और टोल कटने की प्रणाली में कुछ समस्या के कारण बहुत वक्त लग रहा था। जैसा कि भारत में आम है जल्दबाजी के चक्कर में वाहन चालक जहां जगह नहीं होती वहां भी अपना वाहन घुसा देते हैं जिससे परेशानी और बढ़ जाती है। यहां भी यही हो रहा था। वाहन आड़े तिरछे फंसने से कोढ़ में खाज का काम किया। हालांकि टोलकर्मी वाहनों को लाइन में आने का संकेत कर रहे थे लेकिन कार चालक कहां मानने वाले थे। किसी तरह जब हमारा नंबर आया और हम अतिशय क्षेत्र पहुंचे तब तक अंधेरा होने लगा था। अतिशय क्षेत्र में निर्माण कार्य जारी होने से मुख्य मंदिर तक पहुंचने का रास्ता समझ में नहीं आ रहा था लेकिन कुछ दूरी पर मुस्तैद सुरक्षा गार्ड ने हमारी मदद की।
जब पार्किंग स्थल में कार पार्क कर परिसर में पहुंचे तो बहुत कम श्रद्धालु थे। हमने वहां मंदिर में दर्शन किए फिर वहां की भोजनशाला में भोजन करने के लिए पहुंचे तो पता चला कि भोजनशाला शाम को सात बजे बंद हो चुकी है। जैन समुदाय दिन ढलने के बाद भोजन ग्रहण नहीं करता है। हम लोग राहुल जी के भूखा होने की परवाह किए बगैर परिसर के शानदार निर्माण और नए बन रहे मंदिर को निहारते रहे। परिसर बहुत की साफ सुथरा था। शानदार फर्श पर नंगे पैर चलने में कोई तकलीफ नहीं थी। यहाँ तक कि वहां के टॉयलेट भी स्वच्छ थे। वहीं राहुल जी ने बताया कि अतिशय क्षेत्र में श्रद्धालुओं के भोजन और ठहरने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था है। सबसे बडी बात यह कि यहां आने वाले श्रद्धालु से उनका धर्म नहीं पूछा जाता। यह प्रत्यक्ष देखने को भी मिला। हम जब तक पूरे परिसर में घूमे उससे कोई भी अनुमान लगा सकता था कि यह जैन धर्मावलंबी तो नहीं हैं। लेकिन यहां तक कि किसी ने भी आकर हम से कोई पूछताछ नहीं की। जिस काउंटर से भोजन शाला के लिए टोकन मिलता है उन्होंने भी पैसे नहीं लिए। यही कहा कि यदि भोजन शाला खुली हो तो पहले भोजन करें उसके बाद ही भुगतान करें।
करीब एक घंटा वहां बिताने के बाद हम लोग कोटा के लिए रवाना हुए तो तय हुआ कि रास्ते में किसी ढाबे पर भोजन किया जाएगा। लेकिन शायद रविवार का दिन राहुल जी की भूखे रहने की क्षमता की परीक्षा का था। कोटा जयपुर अथवा जयपुर दिल्ली हाईवे के विपरीत इस हाईवे पर रास्ते में इक्के-दुक्के ढाबे दिखे उसमें भी कोई ऐसा नहीं था कि वहां परिवार के साथ बैठकर भोजन किया जा सके। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है। कोटा से झांसी के हाईवे पर भी यही स्थिति देखने को मिलती है। कोटा की ओर बढ़ने के दौरान हमें दो अन्य टोल नाकों पर भी लाइन में जूझना पड़ा। उस पर भी हमेशा की तरह किस्मत खराब थी कि हम जिस लाइन में लगे उसमें ही सबसे ज्यादा समय भी लग रहा था। आश्चर्य की बात यह है कि टोल वसूली की दरें निरंतर बढ़ती जा रही हैं लेकिन टोल प्रणाली में सुधार के बड़े-बड़े दावों के विपरीत और एआई के जमाने में भी टोल पर वाहनों की लाइनें हर स्तर पर हमारे पिछड़े सिस्टम का ही उपहास उड़ाती महसूस होती हैं। सड़कों की हालत और उस पर मवेशियों की मौजूदगी में कोई कमी नहीं आई है। उस पर 85 किलोमीटर के दायरे में ही तीन टोल नाके होना भी आश्चर्य की बात है। जबकि दावा किया जाता है कि 60 किलोमीटर की दूरी में एक टोल नाका होगा। कोटा से जयपुर के 240 किलोमीटर पर केवल तीन टोल नाके हैं।
जब हम कोटा पहुंचने वाले थे तब तय हुआ कि यहां के किसी ऐसे रेस्तरां में भोजन किया जाए जहां स्वादिष्ट भोजन मिले। कई नामों पर चर्चा के बाद कत्त-बाफले के लिए प्रसिद्ध रेस्तरां चलने पर सहमति बनी। रात साढ़े नौ बजे भी इस रेस्तरां में भीड़ थी लेकिन हमें एक टेबल मिल गई। हमने स्वादिष्ट कत्त-बाफले का मजा लिया। मैं यहां से कई बार बाहर से आने वाले मेहमानों को राजस्थानी भोजन कराने के मकसद से कत्त-बाफले लेकर गया लेकिन तब इतना मजा नहीं आया लेकिन आज की बात ही कुछ ओर थी। एक तो तेज भूख और उस पर गर्मा गर्म व्यंजन फिर रमा जी का ट्रीट (बिल उन्होंने ही चुकाया) सोने पर सुहागा था। हम चारों के लिए यह दिन यादगार बन गया जिसमें किसी हिट फिल्म की पटकथा के समान भरपूर मनोरंजन के साथ स्वादिष्ट भोजन था। राहुल जी का आदेश हुआ है कि रामगढ़ क्रेटर भ्रमण करना है। उनके पुणे से लौटने का इंतजार रहेगा।
पुनश्च: मैंने पहली किश्त में मेनाल का वर्णन किया था जिसमें राहुल जी के थकान से एक चट्टान पर बैठने का जिक्र था। लेकिन पहले भी कह चुका हूं कि जहां आम पत्रकार की सोच खत्म होती है वहां राहुल जी की सोच शुरू होती है। उन्होंने कल अपनी फेसबुक पोस्ट में मेनाल की अव्यवस्थाओं की पोल खोली है तब महसूस हुआ कि राहुल जी तो राहुल जी हैं। उन्होंने एक पत्रकार धर्म का पालन करते हुए सौंदर्य के बीच भी ऐसी खामियां खोज निकाली जिन पर विचार और दुरूस्त किया जाना जरूरी है।