
-धीरेन्द्र राहुल-

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का शेर है–
‘शहीदों की चिताओं पर
हर बरस लगेंगे मेलें,
वतन पर मिटने वालों का
यहीं बाकी निशां होगा‘
इसमें तकनीकी रूप से एक पेंच है, चिताएं तो बुझ जाती हैं लेकिन मजारें रहती हैं। खैर!
पिछले 45 साल से पत्रकारिता के धंधे में हूं जिसमें 25 साल कोटा में रिपोर्टिंग करता रहा लेकिन यह पता नहीं था कि 1857 की कोटा में हुई क्रांति के मुख्य सूत्रधार मेहराब खां की मजार कहां हैं? जबकि इसकी अगली जिला परिषद गली में ही मैं बरसों रहा हूं। ऐसे में कोटावासियों को अगर इसके बारे में नहीं पता तो यह उनका दोष नहीं है।
अंग्रेजों ने अपनी राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए देश में कई जगह अपनी सैन्य छावनियां बना रखी थी। इरवीनपुरा, नसीराबाद, नीमच, देवली, खैरवाड़ा में छावनियां थी। बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डेय के नेतृत्व में शुरू हुई सशस्त्र क्रांति उत्तर और मध्य भारत की अन्य छावनियों में भी फैल गई। कोटा में अंग्रेजों की सैन्य छावनी नहीं थी लेकिन 1857 की क्रांति का सबसे स्वर्णिम अध्याय कोटा में ही लिखा गया। यहां करीब छह महीने तक महाराव रामसिंह द्वितीय गढ़ पैलेस में कैद रहे और शासन व्यवस्था जयदयाल भटनागर ( कायस्थ ) और रिसालेदार मेहराब खान पठान के हाथों में रही।

जनवरी 1857 से ही अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष खदबदाता रहा। कोटा का पॉलिटिकल एजेंट मेजर सीई बर्टन तब नीमच छावनी में था। वहां भी सैन्य विद्रोह शुरू हो गया था। बर्टन उसे दबाने में लगा रहा। वहां स्थिति नियंत्रण में आई तो वह 12 अक्टूबर 1857 को कोटा आया।
वकील नन्द किशोर की उपस्थिति में बर्टन ने महाराव से कहा कि लाला जयदयाल भटनागर और मेहराब खां आम जनता को विद्रोह के लिए भड़का रहे हैं, ऐसी हमारे पास पुख्ता सूचना है। इसलिए इन्हें मृत्युदंड दिया जाए। बर्टन का दुर्भाग्य था कि यह बात वकील नन्द किशोर ने विद्रोहियों को लीक कर दी तो उनका क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचा।
जयदयाल और मेहराब खां के नेतृत्व में विद्रोही सैनिक नयापुरा की ओर रवाना हुए तो जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजभवन में मेजर सीई बर्टन, उसके बेटे फ्रैंक व आर्थर के साथ दो गोरे डॉक्टर सेण्डर और कोण्टम को भी विद्रोहियों ने घेरकर मार डाला। महाराव ने देवीलाल को समझाने भेजा तो उसे भी मार डाला। इसके बाद बर्टन का सिर काटकर उसे लाडपुरा, रामपुरा में घुमाया गया। फिर रामपुरा कोतवाली की दीवार पर रखकर सिर को तोप से उड़ा दिया गया।
वहां से विद्रोही गढ़ पैलेस पहुंचे और महाराव रामसिंह को कैद कर लिया। तब मधुराधीश मंदिर के गुंसाई कन्हैयालाल ने समझाया कि महाराव को मत मारो। जयदयाल और मेहराब खां गुंसाई के साथ गढ़ पहुंचे और महाराव को जबरन नौ सूत्रीय संधी पत्र पर दस्तखत करने के लिए बाध्य किया जिसमें लिखा था कि मेजर बर्टन की हत्या मैंने ( रामसिंह के) की है। कोटा की शासन व्यवस्था अब जयदयाल और मेहराब खां संभालेंगे।
15 अक्टूबर 1857 से 30 मार्च 1858 तक लाला जयदयाल और मेहराब खां का कोटा पर पूरे छह महीने अधिकार रहा। ऐसा राजपूताना की किसी और रियासत के साथ नहीं हुआ।
उस समय कोटा के परकोटे में चार हजार सैनिक थे।
करौली का महाराजा मदनपाल कोटा के राज परिवार का समधी था। देवली से अंग्रेज जनरल राबर्ट पहले करौली पहुंचा। वहां से पांच हजार सैनिकों को लेकर कोटा आया। घमासान लड़ाई के बाद अंग्रेज कोटा पर पुनः अपना अधिकार कायम करने में सफल रहे। जयदयाल और मेहराब खां भाग गए थे। जिन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। मेहराब खां पर मुकदमा चलाया गया और 1860 में उन्हें राजभवन के सामने एक नीम के पेड़ पर फांसी दे दी गई। जयदयाल को भी फांसी दी गई। उस समय जमुना बावड़ी के आसपास सघन जंगल था। यहीं पर मेहराब खां को दफनाया गया।
इतिहासविद् फिरोज अहमद बताते हैं कि महाराव उम्मेदसिंह ने स्वयं खलीलुर्रहमान थानेदार को मेहराब खां की मजार के बारे में बताया था। उन्हीं से सन् 1978 में इसके बारे में फिरोज अहमद को जानकारी मिली थी। तब तक लोग इस महान क्रांतिकारी को बावड़ी वाले बाबा बना चुके थे।
(धीरेन्द्र राहुल की फेसबुक वाल से साभार, फोटो -अख्तर खान अकेला एडवोकेट के सहयोग से)