
– विवेक कुमार मिश्र

कहते हैं कि आदमी को
अदरक की तरह होना चाहिए
अदरक तो अदरक ही है,
अपने भीतर संभाल कर रखता है स्वत्त्व
अदरक पड़ा ही रहता है
अपने ही रंग और अंदाज में
उसे किसी की परवाह नहीं रहती
वह नहीं सोचता कि
यहां से कौन कहां जा रहा है
या कहां तक जा सकता है
अदरक को किसी की चिंता नहीं रहती
अदरक तो अपने ही हाल में मगन रहता है
कहते हैं कि अदरक हो जाना
आसान नहीं होता
अदरक एक दशा में पड़ा रहता है
अदरक में उब नहीं होती
न ही एकरसता का कोई असर होता
वह तो अपने ही हाल में
मगन अदरक भर अदरक बना रहता है
अदरक को चाहे जितना कुट लें
कोई फर्क नहीं पड़ता
अदरक अपना स्वाद नहीं छोड़ता
बल्कि यह सच है कि
जितना ही कूटा जाता है
उतना ही स्वाद छोड़ता है
अदरक को जैसे जैसे कुटते हैं
वैसे वैसे ही स्वाद बढ़ता जाता है
अदरक का स्वाद
मन और आत्मा पर उतर जाता है
अदरक धीरे धीरे खुलता है
कोई देखे या न देखे
पर अदरक बुला ही लेता है
अदरक को देखें या
किसी की पगथलियां देखें
जरा भी अंतर नहीं दिखता
अदरक खुद कहीं नहीं जाता
सब खुद ही अदरक की ओर
खींचें चलें आते हैं
अदरक अपने गुण और स्वाद से
खींच ही लेता है
आप कुछ करें या न करें
पर अदरक की तरह कामकाजी बने रहे
हर स्थिति में काम का बना रहे
अदरक बराबर से
यहीं कहता आ रहा है कि
कुट पीस कर भी अपना स्वाद न छोड़ें
अपनी जगह पर बने रहे अदरक की तरह से
हमेशा हर स्थिति में अदरक ही बने रहे ।