
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

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वो दूर सुबह के मंज़र नज़र में आने लगे।
ग़नीम रात के साये* चलो ठिकाने लगे।।
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हमें भी क़ाफ़िले वालो सफ़र में साथ रखो।
फिसलती बर्फ़ में हम भी क़दम जमाने लगे।।
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चमकते जुगनू सितारों की नस्ल के होंगे।
कहीं भी रात हुई और झिलमिलाने लगे।।
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हमें भी मुजरिम-दारो-रसन* ही समझा गया।
हमें भी लोग नई सूलियां दिखाने लगे।।
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सफ़ेद बर्फ़ की चादर ढके पहाड़ों से।
उतरती धूप के मंज़र बड़े सुहाने लगे।।
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हमें तो अपने ही मुर्दा समझ के छोड़ गये।
बवक़्ते-सुबह* परिंदे मगर जगाने लगे।।
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जो रोशनी के थे दुश्मन वो और क्या करते।
जले-जलाये चराग़ों को ही बुझाने लगे।।
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नया मिज़ाज,नई फ़िक्र* हो,नया हो ख़याल।
ग़ज़ल में जाम या साक़ी* तो अब पुराने लगे।।
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तुम्हारी याद से मंसूब* चन्द लम्हों* को।
भुलाना चाहा तो “अनवर” कई ज़माने लगे।।
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शब्दार्थ:
ग़नीम रात के साये*रात के शत्रु साये
मुजरिमे-दारो-रसन*सूली के योग्य मुजरिम
बवक़्ते सुबह*प्रातःकाल के समय
फ़िक्र*चिंतन
साक़ी*शराब पिलाने वाला
मंसूब*सम्बद्ध
लम्हों*क्षणों
शकूर अनवर
9460851271