
• विवेक कुमार मिश्र

तपती धूप में हाल -परेशान विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन से सरस्वती भवन की और जा ही रहा था कि एक जानी पहचानी आवाज कान में गूंज उठी। साथ चल रहे प्रोफेसर साहब से कहा कि देखे यहां कुछ है, यह जानी पहचानी आवाज यूं ही नहीं है यहां एक चींख है। एक ममता की आवाज है। मां की आवाज है। मां अपनी संततियों के लिए आवाज लगा रही है। यहां मां खड़ी है। यहां से जीवन को समझने के लिए ज्ञान का आचमन किया जा सकता है। यदि यहां जीवन और ज्ञान की राशि के समन्वित योग को नहीं समझा गया तो जीवन और ज्ञान का मूल्य कैसे समझ आयेगा। इसी मोड़ पर जीवन का रहस्य व मां की ममता के छांव को समझा जा सकता है। आइए देखते हैं क्या है -ध्यान से देखें इस आवाज को जाने-पहचाने। यह देखिए यहां टिटहरी है ,नीमवानी (नीम के बगीचे ) में टिटहरी का होना कोई नयी बात नहीं है ,यह एक आम तथ्य और सत्य है ,टिटहरी अक्सर अपने जोड़े के साथ गांव – शहर में दीख जाती हैं पर कभी -कभार कुछ ऐसा हो जाता है जिसे हम भूल नहीं पाते। जीवन जीने के क्रम में बहुत कुछ ऐसा है जो रहस्य का पर्दा सामने रखता है तो जीवन की रहस्यमय शक्तियों पर भरोसा करने के लिए विवश भी कर देता है।
यहां हम एक टिटहरी मां से मिलते हैं …हुआ कुछ यूं की विश्वविद्यालय परिसर में एक प्रभाग से दूसरे प्रभाग में जाते हुए जो आवाज सुनायी दी वह बहुत गहरे मर्म को छुने वाली थी। तपती धूप में पैर के ठीक नीचे से आवाज थी -इस क्रम में देखता हूं कि पगदण्डियों के बीच टिटहरी बैठी है थोड़ा ध्यान से देखने पर जो जीवन क्रम दीखता है वह हमे परेशान करता है आश्चर्य में भी डालता है प्रकृति के जीवन चक्र पर सोचने के लिए वाध्य करता है। करें भी क्यों नहीं ? टिटहरी मां अण्डे के उपर बैठी थी इसके लिए शब्द है अण्डे से रही हैं। टिटहरी मां तब तक बैठी रहेंगी जब तक अण्डों से बच्चे निकल न जायें और ये बच्चे अपने पैर पर खड़े न हो जायें। मां का सारा कर्म इस बात में है कि बच्चे अपने पैर पर खड़े हो जाये। तब तक मां एक पैर पर खड़े होकर जीवन की रक्षा में संघर्ष कर रही है। कितनी भी प्रतिकूल स्थितियां हों मां तो मां ही होती है। वह अपनी परवाह न कर जीवन व संततियों की रक्षा के लिए लगातार आगे बढ़ती रहती हैं। यहां जीवन एकदम विपरीत स्थितियों में चौकाता हुआ खिल जाता है।
तपती धूप में 44 डिग्री पारा के बीच पूरी सजगता से एक टिटहरी मां जीवन रच रही हैं- यह हम देख रहे हैं आते जाते हर कदम की निगरानी करते हुए बिना दाना – पानी के इस भीषण गर्मी में कैसे यह मां रह रही होगी इस विषय पर प्रोफेसर साहब से बात होती है। बहाने से मां की पीड़ा संवेदना पर बात होती है पर मन नहीं मानता। लगता है कि केवल संवेदना की बात करना ही जीवन नहीं है। बात से बहुत आगे बढ़कर कुछ काम करने की जरूरत है। संवेदना जब तक कर्म में परिवर्तित न हो तब तक उसका कोई मतलब नहीं। कैसे इस भीषण गर्मी में भूँख – प्यास के बावजूद मां वह भले ही टिटहरी मां ही क्यों न हो संततियों की रक्षा के लिए एक पांव पर खड़ी है। एक पांव पर खड़ी होकर ही मां संततियों के जीवन को अपने अपार स्नेह से रचती रहती है। इस क्रम में वह जीवन की जंग में हर विपरीत स्थितियों से लड़ती है | मां होने के धर्म का निर्वाह करते हुए बच्चों के लिए एक पांव पर खड़ी है। टिटहरी मां एक तरह से देखा जाय तो जीवन को समझने के लिए एक बड़ा संदर्भ व संकेत है। यहां जीवन खिलता है। हर पीड़ा , सूरज की हर तपती किरण जीवन की एक जंग बनकर सामने आती है पर मां की ममता देखिए की वह एक टांग पर खड़ी होकर अपनी संततियो की रक्षा करती है। यही जीवन है। जीवन का इससे बड़ा संघर्ष व सौन्दर्य क्या होगा कि 43′ – 45′ डिग्री पारा के बीच भविष्य की रक्षा में एक टिटहरी मां बैठी है। जीवन तो इसी तरह खिलता है। ऐसे ही प्रसंग जीवन को गहराई में समझने का अवसर प्रदान करते हैं। इंसान तो अपने हर संघर्ष को बताते हुए चलता रहता है पर अनबोलता जीव कैसे अपनी जीवन कथा कहे ? और न कहे तो भी यह मानवीयता का तकाजा है कि हम उनके संघर्ष में कुछ पल बेहतर कर सके तो करें। या कम से कम यह तो करें ही उनके अनुकूल जीवन स्थितियां तो अपने आस – पास बनायें ही। जीवन को जानने के लिए कुछ तो करना ही होगा। यही सोचकर चल पड़ते हैं चट्टानों पत्थरों के बीच जल की खोज में जिससे टिटहरी मां की प्यास बुझाई जा सके। इस क्रम में विल्डिंग में काम आने वाला पाइप का टुकड़ा मिल जाता है उस टुकड़े को बीच से तोड़कर कुछ पानी भर कर टिटहरी मां के पास रख देते हैं। यह सोचते हुए की जब प्यास लगेगा तो यह पानी पी लेगी।
भूख प्यास पीड़ा ,हर यातना को सहते हुए एक मां अपनी संततियों की रक्षा करती है। मां का कोई भी रूप क्यों न हो वह हर रूप में अपनी संततियों की जीवन रक्षा के लिए खड़ी रहती है। स्नेह , सर्मपण व जीवन रक्षा का पूरा भाव यदि दुनिया में कहीं एक ही स्रोत से आता है तो वह मां का आंचल होता है। मां को अपनी संततियों से कुछ भी अपेक्षा नहीं होती वह तो बस मान व थोड़ा सा सम्मान की अपेक्षा रखती है। यदि यह भी न मिल पाये तो भी हर मां यहीं कहती है कि उसकी संततियां जहां भी रहे जैसे भी रहे सुखी रहे …खुश रहे। यह जीवन क्रम में संदेश प्रकृति के पालने से लेकर सड़क किनारे के तमाम बिखरे दृश्यों में देखने को मिलता है जहां सिर्फ मां की छांव होती है। प्रकृति के बीच जीवन की लीला दीखती है इस लीला को जरूर देखे सोचे और जीवन क्रम पर विचार करते हुए जीवन का विस्तार करें जिसमें सबके लिए थोड़ा सा छांव हवा पानी हो इतना तो हमे अपने जीवन का विस्तार करना ही होगा की अपने कदमों के आस-पास की आवाज को सुन सकें इतना ही नहीं कुछ कदम चल कर कुछ कर भी सकें। जीवन के विस्तार के लिए कदम बढ़ाना ही मनुष्यता की सही पहचान है। मनुष्य के हर अगले कदम में मां का हाथ व दुलार होता है पर यहीं ठहरकर यह सोचने की जरूरत है कि संततियां कैसे कर मां के सम्मान व प्रतिष्ठा की रक्षा करेंगी। इसी मोड़ से जीवन का कदम आगे बढ़ता है। यहीं मनुष्य जीवन की परिभाषा व जीवन मूल्य की शिक्षा भी प्राप्त करता है जो प्रकृति के विस्तृत आंगन से लेकर हमारे आस- पास की दुनिया में साफ – साफ दिखलाई पड़ता है।