
“व्हेन द सीड्स वुड स्प्राउट पर एक समीक्षा”
समीक्षक: पलाश शर्मा

कला का कोई भी रूप—चाहे वह मूर्तिकला हो, चित्रकला, रंगमंच, गद्य हो या पद्य—जीवन से एक गहरे जुड़ाव का परिणाम होता है। यह जुड़ाव कभी निरीक्षणात्मक होता है, कभी विद्रोही, कभी संवेदनशील और कभी विनाशकारी। परंतु सच्चा कलाकार जीवन से आंखें नहीं मूंद सकता। काफ्का, कीट्स, दोस्तोएव्स्की, वूल्फ, टॉलस्टॉय, व्हिटमैन जैसे लेखक इसी जीवन-व्याकुलता से उपजे हैं। यहां तक कि हिटलर जैसा व्यक्ति भी ‘माइन कैम्फ’ लिखने को विवश हुआ। स्पष्ट है कि किसी भी सृजन के मूल में जीवन के प्रति एक गहन आसक्ति आवश्यक है।
डॉ. हेमेन्द्र सिंह चंडालिया का काव्य- संग्रह व्हेन द सीड्स वुड स्प्राउट (जब बीज अंकुरित होंगे) पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि कवि अपने समय से विमुख नहीं हो सकता। वह देखता है, प्रतिक्रिया देता है, प्रश्न करता है, संवेदित करता है, और हमें आम जीवन के पीछे छिपे असाधारण यथार्थ से साक्षात्कार कराता है।
कवि भूमिका में स्पष्ट रूप से कहते हैं—
“इस संग्रह की कविताएँ एक तरह के आवेग हैं, जो देश में घट रही घटनाओं से प्रेरित हैं।”
यह ईमानदारी संग्रह की आत्मा है। ये कविताएँ भारत के आम जनजीवन की बात करती हैं—उन विषयों की, जिन पर आज का समाज या तो चुप है या जिन्हें मीडिया ने विस्मृत कर दिया है। लेकिन कवि इन मुद्दों को सिर्फ सूचना के तौर पर नहीं उठाते, वे इन्हें मानवीय बनाते हैं। द रिपब्लिक नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—
“देश मना रहा है
गणतंत्र दिवस!…
पर कौन करेगा जनता को सलाम
गणतंत्र दिवस पर?”
और फिर अगली पंक्ति जैसे हथौड़े सी बजती है—
“सड़क पर मरने वालों को
बहादुरी के पदक नहीं मिलते, कहते हैं।”
इसी तरह, मुझे बारिश से चिढ़ है कविता में वर्षा जैसे सुंदर और जीवनदायिनी प्रतीक को विरोध का माध्यम बनाया गया है—
“ओले गिरने से पहले
किसानों पर मुसीबतें
बरसाती हैं ये बूँदें।”
यह डीफेमिलियरायिज़ेशन (अपरिचयकरण) की एक अद्भुत मिसाल है—परिचित छवियों को नया अर्थ देने की ताकत।
कुछ कविताएं अंतरात्मा से संवाद करती हैं, जैसे ‘भटकते मनुष्य के लिए कोई सांत्वना नहीं’ की ये पंक्तियाँ—
“थोड़ी सी चूक बन जाती है बड़ा दोष
और खोल देती है कई रहस्यों का कपाट…”
कहीं सामाजिक कटाक्ष है, कहीं सौंदर्य की कोमल अनुभूति—
“जाति इतनी पवित्र और नाज़ुक क्यों है
कि एक जूते से काँप उठे?
एक निर्दोष दुकानदार को जेल में डाल दिया
सिर्फ इसलिए कि उसके जूते के तलवे पर ‘ठाकुर’ लिखा था।”
कवि आस्था को भी स्पर्श करते हैं—
“आस्था एक गरमाहट है
एक मासूम आंख की चमक में
जो ऊपर देखती है
दयालु रोशनी की ओर…”
डॉ. चंडालिया का कवि-स्वभाव मूलतः रोमांटिक है। वे स्पष्ट कहते हैं—
“कविता हृदय की आवाज़ है। यह कोई तकनीकी कौशल का उत्पाद नहीं जो गणना के बाद रची गई हो…”
इस संग्रह में प्रकृति, कल्पना, आम लोगों की ज़िन्दगी, आत्म-अभिव्यक्ति—इन सबके दर्शन होते हैं। जैसे—
“प्रकृति की प्रचुरता
सिखाती है
ईश्वर के उपहारों को
सबके साथ बाँटना…”
या फिर व्यक्तिगत स्मृति से उपजा यह दृश्य—
“आज मैंने
अपने पिताजी का कोट पहना
मैं दो इंच ऊँचा लग रहा था…”
आवारा बनारस कविता में पूरब का एक धुंधलाता, लेकिन सौम्य दृश्य वर्ड्सवर्थ की शैली में उभरता है—
“पूरब की सुबह धुंधली है
पेड़ मौन हैं
पत्ते सोए हैं…”
लेकिन अगले ही क्षण ब्लेक की चेतावनी-सी सुनाई देती है—
“शासक
प्रेम और करुणा की
पुरातन परंपरा को कलंकित करते हैं?”
यह संग्रह आपको थामता है, रुकने को मजबूर करता है। कवि आपको तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में ठहराव का स्थान देता है—
“सुबह की एक प्याली चाय में
जीवन का आनंद समाया है…”
यह संग्रह आपको याद दिलाता है कि ज़िंदगी का अर्थ सिर्फ संघर्ष या उपलब्धि में नहीं है, बल्कि उन साधारण पलों में भी है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
डॉ. चंडालिया की कविता हमें सोचने, महसूस करने और सवाल करने को प्रेरित करती है। आज के उस समय में, जहाँ भाषा बहस और प्रोपेगैंडा का उपकरण बन गई है, यह काव्य-संग्रह एक सधी हुई, लेकिन सजीव आवाज़ की तरह सामने आता है। यह नारा नहीं लगाता, बस धीरे से पूछता है—क्या आपने भी कुछ महसूस किया?
(कविताओं के अंश अंग्रेजी से अनुदित हैं)