
-डॉक्टर सुरेश पाण्डेय

लेखक, प्रेरक वक्ता, नेत्र चिकित्सक
सुवि नेत्र चिकित्सालय, कोटा
हर दिन, देश के मेडिकल कॉलेजों में हजारों विद्यार्थी डॉक्टर बनने का सपना लेकर पढ़ते हैं। वे केवल एक पेशा नहीं, एक सेवा भाव को अपनाते हैं। वे अपनी जवानी के सबसे कीमती 12 से 15 साल किताबों, कक्षाओं और अस्पतालों के गलियारों में बिताते हैं। वे एक ही सपना देखते हैं— चिकित्सा कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त कर दूसरों की पीड़ा दूर करना, जीवन बचाना, समाज की सेवा करना। लेकिन क्या यह समाज उन्हें वह सम्मान दे पा रहा है जिसके वे हकदार हैं?
दिनाँक 7 जून 2025 को गोवा मेडिकल कॉलेज में जो हुआ, वह इस पूरे सपने को चकनाचूर कर देने वाला था। एक वरिष्ठ डॉक्टर, डॉ. रूद्रेश कुट्टीकर, जो दशकों से समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं, उन्हें एक गैर-आपातकालीन मरीज को नियमों के अनुसार रेफर करने के लिए अस्पताल में कैमरे के सामने अपमानित किया गया। और यह अपमान किसी और ने नहीं, स्वयं राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने किया—वह भी पत्रकारों और मीडिया की मौजूदगी में।
मंत्री महोदय ओपीडी में कैमरा टीम लेकर पहुंचे, डॉक्टर को सार्वजनिक रूप से डांटा, अपमानित किया और उनके निलंबन की घोषणा कर दी। कोई प्रक्रिया नहीं, कोई जांच नहीं, बस सत्ता का प्रदर्शन। डॉक्टर को जिस मरीज के लिए दंडित किया गया, वह मरीज एक पत्रकार का रिश्तेदार था। सत्ता, संबंध और प्रचार—इन तीनों ने मिलकर सेवा की गरिमा को रौंद दिया।
डॉक्टर कुट्टीकर का उत्तर था—“मुझे वहीं माफी चाहिए, जहाँ मेरा अपमान हुआ।” यह वाक्य सिर्फ एक व्यक्ति का बयान नहीं, यह उस पूरी चिकित्सा बिरादरी की आत्मा की आवाज़ है जिसे अक्सर चुप रह जाने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।
यह सवाल अब हर डॉक्टर का है
आज जब कोई मेडिकल विद्यार्थी यह वीडियो देखता है, जब वह देखता है कि एक ईमानदार डॉक्टर को सरेआम नीचा दिखाया जा रहा है, तो वह सवाल करता है—क्या मैंने यह पेशा इस दिन के लिए चुना था? क्या अब सेवा का मोल अपमान हो गया है? क्या डॉक्टरों को सिर्फ ताली और थाली की उम्मीदों से जोड़कर, जब चाहें अपमानित करना सत्ता का अधिकार बन गया है?
चिकित्सा पेशा अति चुनौती पूर्ण एवं संवेदनशीलता से भरपूर यह एक मानवीय दायित्व है। एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत डॉक्टर रात-दिन बिना भेदभाव के सेवा करता है। वह त्योहारों में भी अस्पताल में होता है, छुट्टियों में भी इमरजेंसी ड्यूटी देता है, क्योंकि उसके लिए हर जान की कीमत होती है। लेकिन जब उसी डॉक्टर को सत्ता की ताकत के आगे अपमानित किया जाता है, तो यह केवल उसकी नहीं, पूरे पेशे की अस्मिता का अपमान होता है।
यह केवल गोवा की घटना नहीं है
देशभर में ऐसी घटनाएँ होती रही हैं—कभी डॉक्टरों को मरीज के परिजनों ने पीटा, कभी नेताओं ने दबाव बनाकर इलाज में हस्तक्षेप किया, कभी अस्पतालों में राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन हुआ। यह घटनाएँ अब अपवाद नहीं रहीं, यह एक खतरनाक प्रवृत्ति बनती जा रही हैं। और अगर हम आज नहीं बोले, तो कल हर अस्पताल एक डर, अपमान और हस्तक्षेप का केंद्र बन जाएगा।
अस्पताल, राजनीति का मंच नहीं
अस्पताल वह स्थान है जहाँ मानवता जिंदा रहती है। जहाँ दर्द सुना और बांटा जाता है। जहाँ हर धर्म, जाति, वर्ग के लोग सिर्फ “मरीज” बनकर आते हैं। लेकिन अगर अस्पतालों में राजनीति, कैमरे, बयानबाज़ी और सत्ता का घमंड प्रवेश करेगा, तो सेवा की भावना मर जाएगी।
मंत्री महोदय का बयान कि “मैंने माफ़ी मांग ली”, केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया। जिस जगह पर डॉक्टर का अपमान हुआ, क्या वही स्थान माफी का स्थान नहीं होना चाहिए था? क्या यही नेतृत्व है, जो आत्मगौरव को झुका दे और आत्ममंथन को टाल दे?
डॉक्टरों को चाहिए इज्ज़त, ताली नहीं
डॉक्टरों को नायक बनाना, उनकी तारीफ़ करना केवल संकट के समय ही क्यों होता है? COVID-19 महामारी हो, दुर्घटना हो, या प्राकृतिक आपदा—डॉक्टर सबसे आगे रहते हैं। पर जब सामान्य दिनों में कोई विवाद हो, तो क्या वही डॉक्टर दोषी मान लिए जाते हैं? क्या ताली बजाना आसान और इज्ज़त देना कठिन है? हमारी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में अब एक बड़ा बदलाव ज़रूरी है। केवल मेडिकल ज्ञान ही नहीं, डॉक्टरों को ‘सॉफ्ट स्किल्स’ भी सिखाने होंगे। उन्हें संवाद, सहानुभूति, तनाव प्रबंधन और आत्मसंयम की शिक्षा देनी होगी। क्योंकि आज की दुनिया में मरीज केवल दवा नहीं चाहता, वह एक संवेदनशील इंसान से इलाज चाहता है।
लेकिन यह भी सच है—
कोई सॉफ्ट स्किल उस अपमान को नहीं रोक सकती जो सत्ता के नशे में किया जाता है। राजनेताओं को भी सॉफ्टवेयर स्किल्स कम्युनिकेशन की कला सीखना चाहिए। डॉक्टरों को अगर सबसे पहले गरिमा और सुरक्षा नहीं दी जाएगी, तो कोई भी प्रशिक्षण, कोई भी नीति, उन्हें इस सिस्टम से जोड़ कर नहीं रख पाएगी।
सरकारों को तुरंत स्पष्ट और कठोर नीति बनानी चाहिए—अस्पतालों में राजनीतिक हस्तक्षेप निषिद्ध हो, डॉक्टरों की गरिमा को संरक्षित करने के लिए कानूनी सुरक्षा दी जाए, और मीडिया को अस्पताल परिसरों में बिना अनुमति के प्रवेश करने से रोका जाए।
समाज की जिम्मेदारी क्या है?
इस मुद्दे पर समाज भी उतना ही दोषी है जितनी सत्ता। हम सबने डॉक्टरों को एक “सेवक” मान लिया है। हमने सोच लिया है कि अगर डॉक्टर ने जवाब नहीं दिया, तो वह हमारी सत्ता के अधीन है। यह मानसिकता बदलनी होगी। डॉक्टर भी एक इंसान है—उसकी भी भावनाएँ हैं, उसका भी आत्मसम्मान है। यदि हम डॉक्टरों की गरिमा की रक्षा नहीं करेंगे, तो कल कोई भी इस पेशे को अपनाने को तैयार नहीं होगा।
यह आंदोलन अब ज़रूरी है
आज समय है कि मेडिकल विद्यार्थी, डॉक्टर, रेजिडेंट एसोसिएशन, शिक्षक और समाज के प्रबुद्ध लोग इस मुद्दे पर एकजुट होकर आवाज़ उठाएं। यह लड़ाई केवल गोवा की नहीं, यह भारत के हर डॉक्टर की है। यह आंदोलन सिर्फ माफ़ी का नहीं, एक नई सोच, नई नीति और नई चेतना का है। हमें तय करना होगा—क्या हम डॉक्टरों को सम्मान देंगे, या हर बार सत्ता के सामने उन्हें नीचा दिखते देखेंगे? क्या हम अस्पतालों को सेवा का केंद्र बनाएंगे या सत्ता का प्रदर्शनस्थल?
डॉ. कुट्टीकर ने केवल एक सत्य कहा—“माफ़ी वहीं होनी चाहिए, जहाँ अपमान हुआ।” इस एक वाक्य में पूरी लड़ाई का सार है। यह केवल शब्द नहीं, एक विचार है। एक चेतावनी है। और एक आह्वान है—चुप मत रहिए, अब बोलिए। क्योंकि अगर आप नहीं बोले, तो अगला अपमान किसी और डॉक्टर का नहीं, पूरे समाज का होगा।
डॉक्टर सुरेश पाण्डेय
लेखक, प्रेरक वक्ता, नेत्र चिकित्सक
सुवि नेत्र चिकित्सालय, कोटा