जाति जनगणना चाहे जिसकी वजह से हो, होनी चाहिए थी

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-सुनील कुमार Sunil Kumar

केन्द्र सरकार ने अगली जनगणना में जाति का कॉलम जोडऩे की घोषणा की है। इसके साथ ही पिछले कुछ बरसों से लगातार इसके लिए एक मुहिम चला रहे लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की एक मांग पूरी हुई। दूसरी तरफ केन्द्रीय मंत्रिमंडल के इस फैसले को घोषित करते हुए मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि संसद में जब यूपीए सरकार के सामने यह मुद्दा आया था, तब कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार इससे कतरा रही थी, और इसे कभी लागू नहीं किया। अब यह राजनीतिक बयानबाजी तो चलती रहेगी कि राहुल गांधी के बयानों का लगातार विरोध करने के बाद अब मोदी सरकार ने इसे क्यों लागू किया है?

हाल के बरसों में बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर जाति जनगणना करवाई थी, जो कि मोटेतौर पर ओबीसी समुदाय की गिनती थी, और ओबीसी के भीतर किन जातियों के कितने लोग हैं, उनका भी हिसाब लगाया गया था। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, और बिहार में जब नीतीश कुमार की सरकार ने यह जनगणना करवाकर उसके नतीजे सामने रखे थे, तब वे कांग्रेस और आरजेडी के साथ गठबंधन से सरकार चला रहे थे, और उस वक्त भी लालू और राहुल इसके लिए सबसे अधिक मुखर थे। इसके बाद नीतीश कुमार ने एक और यूटर्न लिया, और रातोंरात वे भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन ओबीसी जनगणना की रिपोर्ट तो सामने आ चुकी थी, और उसे लेकर देश भर में चर्चा और सुगबुगाहट होने लगी थी। देश की आबादी में अनुसूचित जाति, और जनजाति के आंकड़े तो पहले से मौजूद हैं, और उनके आधार पर ही राज्यों में, या संसद में एसटी-एससी आरक्षण के आंकड़े तय होते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद अलग-अलग राज्यों को ओबीसी की जनगणना करवानी पड़ी क्योंकि पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने उसे एक अनिवार्य शर्त बना दिया था, और इस जनगणना के बाद ही पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों में ओबीसी का आरक्षण होना संभव था। इसलिए देश में जगह-जगह जाति जनगणना चल रही थी, और राहुल गांधी इसे देश के विकास के लिए एक रामबाण दवा की तरह पेश कर रहे थे कि अलग-अलग जातियों को उनका जायज हक पाने के लिए जाति जनगणना के आंकड़े जरूरी हैं।

अब अगली जनगणना से कई चीजें जुड़ गई हैं। उसके बाद ही डी-लिमिटेशन का काम हो सकेगा जिसके तहत संसद और विधानसभाओं की सीटों की सीमा दुबारा तय हो सकेगी, या उनकी गिनती बढ़ सकेगी। अभी केन्द्र सरकार के सामने एक और बड़ी चुनौती खड़ी हुई है कि दक्षिण के राज्य आबादी के अनुपात में लोकसभा की सीटें बढ़ाने के खिलाफ हैं क्योंकि उन्होंने जिम्मेदारी के साथ अपनी आबादी सीमित रखी है, और संसद में उनकी सीटें इस वजह से घट जाएंगी। दूसरी तरफ उत्तर भारत, और हिन्दीभाषी राज्यों में आबादी बहुत बढ़ी है, और इस गैरजिम्मेदारी के लिए उन्हें संसद में अधिक सीटें मिल जाएंगी। इसलिए डी-लिमिटेशन का यह काम भारी विवाद से घिरा हुआ है, बीते दशकों में संसदीय सीटों का डी-लिमिटेशन इसी वजह से दस-दस बरस टाला गया था, और इस बार भी मोदी सरकार के लिए यह आसान नहीं रहेगा। राज्यों के भीतर विधानसभा सीटों को बढ़ाने में किसी पार्टी या राज्य को दिक्कत नहीं होगी, और शायद उतना ही काम करके मोदी सरकार को एक बार फिर संसद की सीटों का डी-लिमिटेशन टालना पड़े। लेकिन वह तो जनगणना के बाद की बात है। जनगणना के बाद और डी-लिमिटेशन करने या न करने के बाद महिला आरक्षण को लागू करने की एक चुनौती भी सामने है, और इसे कैसे लागू किया जाएगा, डी-लिमिटेशन से बढ़ी हुई सीटों पर महिला सीटों को कैसे तय किया जाएगा, इस बारे में भी अभी एक बड़ी दुविधा बनी हुई है। इस तरह आने वाली जनगणना अपने बाद की कई दूसरी संवैधानिक प्रक्रियाओं को तय करेगी, और साथ-साथ जातियों के आंकड़े भी आगे की राजनीति को तय करेंगे।

अब जैसे छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल सरकार ने अनमने ढंग से ओबीसी हेडकाउंट करवाया था, और उसकी रिपोर्ट को कभी जारी नहीं होने दिया। बाद में जब इसके आंकड़े सामने आए तो पता लगा कि ओबीसी के भीतर जिन जातियों की आबादी सबसे अधिक है, उन जातियों के नेताओं के हाथ कांग्रेस और सरकार की लीडरशिप नहीं थी। लेकिन जब तक यह मुद्दा बन पाता, तब तक विधानसभा के चुनाव आ गए थे, और बात आई-गई हो गई थी। छत्तीसगढ़ की विष्णुदेव साय सरकार ने एक औपचारिक पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग बनाकर जातियों का सर्वे करवाया, और उसकी रिपोर्ट के आधार पर पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों में आरक्षण तय हुआ। इस तरह जाति जनगणना को स्थानीय संस्थाओं के चुनाव करवाने के लिए, उनमें आरक्षण देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक अनिवार्य शर्त बना ही दिया था। मोदी सरकार के सामने अगली जनगणना में इसे जोडऩे का एक मौका भी था, और ऐसा करके केन्द्र सरकार ने अब तक का अपना विरोधी रूख भी छोड़ दिया है। 2011 के बाद से देश में जनगणना नहीं हो पाई थी, और इस बार की जनगणना पांच-छह बरस देर से भी होगी, और जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया है डी-लिमिटेशन और महिला आरक्षण से भी जुड़ी हुई रहेगी। इसलिए इस जनगणना में जाति गणना करवाना एक सही फैसला है, फिर चाहे यह राहुल गांधी का उठाया हुआ मुद्दा क्यों ही न रहा हो, नेताओं, पार्टियों, और सरकारों को अपना रूख लचीला रखना चाहिए, और देर से सही, अब भी अगर मोदी सरकार ने यह फैसला लिया है, तो इसे उसके खिलाफ इस्तेमाल करने का हमारे पास कोई तर्क नहीं है। देर से ही सही, एक सही फैसला तो हुआ।

अब इस जनगणना से जातियों की सही संख्या सामने आने पर यह भी हो सकेगा कि सुप्रीम कोर्ट ने एसटी-एससी तबकों के भीतर आरक्षण में आरक्षण का जो फैसला दिया है, उस पर भी अधिक तर्कसंगत, और न्यायसंगत तरीके से फैसला हो सकेगा। सुप्रीम कोर्ट ने इन दो आरक्षित वर्गों के भीतर और अधिक आरक्षित विभाजन का अधिकार राज्यों को दिया है, और इससे अब जाति जनगणना के बाद आबादी के अनुपात में अलग-अलग जातियों का आरक्षण भी राज्य चाहेंगे तो कर सकेंगे। अगले कुछ बरस हिन्दुस्तान की राजनीतिक, प्रशासनिक और चुनावी संवैधानिक व्यवस्था में भारी हलचल के रहेंगे, और तमाम तबकों को जाति जनगणना, डी-लिमिटेशन और महिला आरक्षण के बाद की तस्वीर का अंदाज लगाना चाहिए।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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