
देशबन्धु में संपादकीय आज.
भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि संविधान केवल शासन के लिए राजनीतिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह ‘क्रांतिकारी वक्तव्य’ है, जो गरीबी, असमानता और सामाजिक विभाजन से पीड़ित, औपनिवेशिक शासन के लंबे वर्षों से बाहर आ रहे देश को आशा की किरण दिखाता है। इटली के मिलान कोर्ट ऑफ अपील में बोलते हुए जस्टिस गवई ने कहा कि उन्हें यह कहते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि भारतीय संविधान के निर्माता इसके प्रावधानों का मसौदा तैयार करते समय सामाजिक-आर्थिक न्याय की अनिवार्यता के प्रति गहराई से सचेत थे। जस्टिस गवई सोलह आने सच बात कह रहे हैं। संविधान निर्माताओं ने तो हर तरह की गैरबराबरी दूर करने और सबके लिए एक समान न्याय की ज़रूरत का सिद्धांत संविधान बनाते वक्त सामने रखा। लेकिन क्या मौजूदा वक़्त में जिन लोगों पर संविधान का पालन करने और न्याय देने की जिम्मेदारी है, वे इस सिद्धांत पर कायम हैं, या विचलित हो चुके हैं, इसकी पड़ताल करनी होगी।
बीते महीनों में दो ऐसे प्रकरण सामने आए हैं, जब जज की आसंदी पर बैठे लोगों की निष्ठा व इरादों पर सवालिया निशान लगे हैं। पिछले साल दिसंबर में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव ने विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में कथित तौर पर अल्पसंख्यकों के लिए ऐसी टिप्पणी की थी, जिस पर विवाद खड़ा हो गया था। बताया जाता है कि जस्टिस शेखर यादव ने कहा था कि देश को बहुसंख्यकों के हिसाब से चलना चाहिए। इस तरह के बयान को नफ़रती भाषण मानते हुए वरिष्ठ वकील और सांसद कपिल सिब्बल के नेतृत्व में 55 सांसदों ने 13 दिसंबर को ही उनके ख़िलाफ़ राज्यसभा स्पीकर यानी उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव सौंप दिया था। हालांकि जस्टिस यादव ने कहा था कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है।
दूसरा मामला मार्च का है, जब 14 मार्च 2025 को जस्टिस यशवंत वर्मा के लुटियंस दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास पर आग लगने की घटना हुई थी। आग बुझाने के लिए पहुंची दमकल विभाग की टीम और पुलिस ने मौके पर आधे जले हुए 500 रुपये के नोट और बड़ी मात्रा में नकदी देखी गई। इस मामले में बड़े भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो जस्टिस यशवंत वर्मा ने इसे अपने ख़िलाफ़ बड़ी साजिश बताया।
दोनों ही मामलों से न्यायपालिका पर आम आदमी का भरोसा हिल गया। क्योंकि एक तरफ अल्पसंख्यकों के लिए भेदभावपूर्ण रवैया और हिन्दुत्ववादी ताकतों की तरफ झुकाव दिखा और दूसरी तरफ इंसाफ़ करने वाले के बेईमान रवैये की बू आई। अब जस्टिस वर्मा मामले में महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वर्मा के घर नकदी मिलने के मामले पर तीन जजों की आंतरिक जांच समिति बनाई थी। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के जस्टिस शील नागु, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी एस संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जज जस्टिस अनु शिवरामन की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है, जिसमें कहा गया है कि 14 मार्च को दिल्ली में उनके सरकारी आवास में आग लगने के दौरान वहां नकदी मिलने का मतलब है कि उन पर इसकी ज़िम्मेदारी है।
अब सरकार ने संसद के आगामी मानसून सत्र में जस्टिस वर्मा के खिलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव लाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। बता दें कि इस मामले में जांच पैनल ने 55 गवाहों के बयान दर्ज किए, जिनमें से कम से कम 10 गवाहों ने पुष्टि की कि उन्होंने जस्टिस वर्मा के आवास पर आधे जले हुए या पूरी तरह जले हुए नोट देखे थे। पैनल ने कहा कि आधे जले हुए नोटों की मौजूदगी और उनका आवास पर पाया जाना गंभीर सवाल उठाता है। यह नकदी के आने और उसके इस्तेमाल पर संदेह पैदा करता है। रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस वर्मा ने न तो पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और न ही अपने वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों को इसकी सूचना दी। पैनल ने इसे ‘अनुचित आचरण’ और ‘न्यायिक कर्तव्यों के प्रति लापरवाही’ माना है और महाभियोग की सिफारिश की है।
इस मामले में कपिल सिब्बल ने कहा है कि कुछ वीडियो और मीडिया में आई जले नोटों की बातों को बिना जांच के आधार नहीं बनाया जा सकता। श्री सिब्बल का तर्क है कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ आरोप इतने स्पष्ट नहीं हैं कि उन पर महाभियोग चलाया जाए। इसके साथ ही कपिल सिब्बल ने सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाया कि जस्टिस शेखर यादव पर शिकायत के छह महीने बीत जाने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। दरअसल दिसंबर में राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षरित शिकायती पत्र मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ ‘इन हाउस’ जांच शुरू नहीं कर सका। राज्य सभा सचिवालय ने मार्च में ही इस मामले की सूचना सुप्रीम कोर्ट में सेकेट्ररी जनरल को पत्र लिखकर दे दी थी। इससे जजेस इन्कवायरी एक्ट के तहत अनिवार्य प्रक्रिया शुरू हो गई, जिसके अनुसार अगर राज्यसभा अध्यक्ष प्रस्ताव स्वीकार करते हैं, तो उन्हें तीन सदस्यीय जांच पैनल का गठन करना होगा, जिसमें मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के जज, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एक ‘प्रख्यात न्यायविद’ शामिल होंगे, जो उन आधारों की जांच करेंगे, जिनके आधार पर संबंधित जज को हटाने की मांग की गई है. इसके बाद समिति संबंधित जज के खिलाफ आरोप तय करेगी। चूंकि अब तक समिति गठित नहीं हुई है तो जस्टिस शेखर यादव मामले में जांच रुकी हुई है।
इस पर श्री सिब्बल ने कहा कि एक तरफ राज्यसभा के महासचिव ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा कि यादव के खिलाफ आंतरिक जांच को आगे न बढ़ाएं क्योंकि उच्च सदन में उनके खिलाफ एक याचिका लंबित है, जबकि न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के मामले में उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और जब संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति, जो पदानुक्रम में दूसरे नंबर पर है, छह महीने में संवैधानिक दायित्वों को पूरा नहीं करता है तो सवाल उठना लाजमी है। श्री सिब्बल ने कहा, ‘मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूं जो संवैधानिक पदों पर बैठे हैं, उनकी जिम्मेदारी केवल यह सत्यापित करना है कि हस्ताक्षर हैं या नहीं? क्या इसमें छह महीने लगने चाहिए?’ उन्होंने कहा कि एक और सवाल उठता है कि क्या यह सरकार ‘पूरी तरह से सांप्रदायिक’ टिप्पणी करने वाले शेखर यादव को बचाने की कोशिश कर रही है।
न्यायपालिका से जुड़े ये दोनों मामले संविधान और लोकतंत्र दोनों को चोट पहुंचा रहे हैं।