अरे! दुनिया में क्या यह सब भी होता है?

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-भावेश खासपुरिया-

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भावेश खासपुरिया

हर व्यक्ति पर आजीवन उसकी परवरिश, शिक्षा-दीक्षा और उसके परिवेश का प्रभाव देखा जा सकता है। इन सभी से प्रभावित इस जीवन को जीते हुए कभी-कभी अपने सोचने के तरीके, अन्य व्यक्तियों से व्यवहार करने के अपने ढंग और विचारों को जानकर महसूस होने लगता है कि जैसे हमें तो बहुत पहले ही किसी साँचे में उड़ेल दिया गया है। हम अब तक का अपना जीवन सिर्फ़ उसी एक साँचे में जिए जा रहे हैं, जिस साँचे का हमारे लिए चुनाव जिस किसी ने किया हो;लेकिन हमने नहीं किया है।

इस विषय पर मनोविज्ञान में व्यवहारवाद के प्रतिपादक व अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ‘जॉन बी. वॉटसन’ का एक कथन सुप्रसिद्ध है। वह कहते हैं कि – “मुझे एक स्वस्थ, सुगठित शिशु (चाहे उसकी प्रतिभा, रुचि, प्रवृत्ति, योग्यता और उसके पूर्वजों की जाति कुछ भी रही हो) और उसे पालने के लिए मेरी अपनी निर्दिष्ट दुनिया दे दीजिए। मैं उसे वैसा बना सकता हूँ, जैसा मैं उसे बनाना चाहता हूँ।”

कभी-कभी अपने उस साँचे में जीते हुए, जब हमें उसके सीमित दायरे से इतर कोई नूतन अनुभव होता है, तब हम कुछ क्षण के लिए बिल्कुल अवाक् रह जाते हैं। आश्चर्य से हमारा मुँह आधा खुला ही रह जाता है। लगता है कि अरे! दुनिया में क्या यह सब भी होता है? उस समय हमें अपना साँचा कितना संकुचित, संकीर्ण और तंग महसूस होने लगता है, और दुनिया की परिधि कितनी विस्तृत व व्यापक।

जैसे यह दुनिया अनंत तक पसरा नीला आसमान हो और हम कहीं किसी कोने में दुबके हुए, जल से भरे वह पात्र, जिसने मात्र आसमान के कुछ अंश के प्रतिबिंब को ही अब तक अपने भीतर समेटकर रख रखा है। फिर धीरे-धीरे हमारा अधखुला मुँह अपनी असल मुद्रा में आने लगता है और समय के साथ वह नूतन अनुभव भी विशेष की नसेनी से नीचे उतरकर हमारे लिए सामान्य भूमि पर आ खड़ा होता हैं।

यहाँ हर साँचा दूसरे से कई अर्थों में भिन्न है, और एक-दूसरे से भिन्न होने का कारण सिर्फ़ यही नहीं है कि हर एक की परवरिश और शिक्षा-दीक्षा अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों से हुई है, या सभी का परिवेश भिन्न-भिन्न रहा है। यदि ऐसा होता, तो माता-पिता की हर संतान के आचार-विचार और व्यवहार लगभग एक सरीखा होता;लेकिन ऐसा नहीं है।

साँचों के भिन्न होने में कई अन्य कारण भी सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाते रहे होंगे। वह कौनसे कारण हैं? यह शोध का विषय है। लेकिन हर एक साँचा भिन्न है, यह स्वीकार करने में किसी को कठिनाई महसूस नहीं होनी चाहिए। सोचता हूँ कि जब हर साँचा ही अपने में विशेष है, तो दो साँचों में तुलना कर हमारा किसी एक को दूसरे के अनुरूप ढाल देने के प्रयास का भी क्या यहाँ कोई औचित्य ही रह जाता है?

हमारा साँचा हमारे और दूसरों के लिए कितना और कहाँ तक उचित ठहरता है? यह निर्णय हमारे अतिरिक्त कोई अन्य नहीं कर सकता है। माँ कहती है कि गीली मिट्टी को आसानी से आकार दिया जा सकता है;लेकिन पकी को आकार देने में मुश्किल होती है, अधिक मेहनत लगती है। वह सच ही कहती है। हम संभवतः अब पके हुए चिकने बासन हो चुके हैं। फिर भी हमें दुनिया के हर अनुभव को समझने और परखने के लिए स्वयं को उपलब्ध तो रखना ही चाहिए। मुश्किल और मेहनत से ही सही;यदि हमें आसमान के दूसरे हिस्सों के लिए अपने साँचे में जगह बनाना सही जान पड़े, तो फिर ऐसा करने से पीछे न हटना चाहिए। लेकिन यदि ऐसा करने में हमारी आत्मा हमसे राज़ी न हो, तो वहीं ठहर जाने में भी कोई बुराई नहीं है। साहिर होशियारपुरी का शेर है –

कोई तो साँचा कभी आएगा रास
मैं हर इक साँचे में यूँ ढलता रहा

©भावेश खासपुरिया

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