
-सुनील कुमार Sunil Kumar
अहमदाबाद में एयर इंडिया के एक बड़े विमान हादसे में करीब पौने तीन सौ मौतों के बाद अब सरकार और कंपनियां संभले हैं, तो हालत यह है कि कल एक दिन में एयर इंडिया की सात अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द हो गईं। कुछ दूसरी एयरलाईंस के पायलटों ने भी सुरक्षा नियमों को अधिक कड़ाई से मानना शुरू किया, तो भारत में कुछ और विमान भी या तो उड़े नहीं, या उड़े तो लौट आए। यह एक किस्म का श्मशान वैराग्य दिख रहा है कि जब तक चिता की आग ठंडी न हो, तब तक सब वैराग्य की बातें करने लगते हैं, और उसके बाद फिर सबके लिए आम ढर्रा शुरू हो जाता है। यह तो विमान दुर्घटना की बात थी, तो इस पर चर्चा कुछ अधिक हो रही है, लेकिन अलग-अलग कई किस्म के हादसों में थोक मौतें होती रहती हैं, और आमतौर पर सरकारें मौतों के आंकड़ों को छुपाने में लगी रहती हैं। अभी-अभी कुंभ में भगदड़ मौतों के जो नए आंकड़े सामने आए वे सरकारी आंकड़ों से ढाई गुना से अधिक थे, इसी तरह भारत में कोरोना मौतों के आंकड़ों का हकीकत से कुछ भी नहीं लेना-देना था, ऐसा बहुत सी भरोसेमंद रिपोर्ट में बाद में कहा गया। मौतों को छुपाना एक बड़ी आम बात है। लोगों को याद होगा कि कुंभ की भगदड़ में जब लाशों को गिना जा चुका था, तब भी योगी सरकार ने मौत या लाश शब्द भी जुबान पर नहीं लाया था, और सिर्फ गोलमोल जवाब देना जारी रखा था। जब तक समस्या को समस्या नहीं माना जाएगा, तब तक उसके किसी समाधान का सिलसिला शुरू भी नहीं हो पाएगा।
पिछले एक-दो बरस में देश में कई किस्म की रेल दुर्घटनाएं हुईं, उनसे यह बात सामने आई कि रेलगाडिय़ों में जो सुरक्षा प्रणालियां लग जानी चाहिए थीं, उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है। देश में उनके इस्तेमाल का फैसला हो चुका है, लेकिन उस पर अमल की रफ्तार इतनी धीमी है कि कुछ गिने-चुने हिस्से में ही वह दुर्घटना-बचाव प्रणाली काम कर रही है, बाकी जगहों पर खतरा बना हुआ है। ऐसा ही हाल सडक़ों पर होता है, जहां पर गड्ढे ही गड्ढे रहते हैं, सडक़ों पर जानवर बैठे रहते हैं, दूसरों के लिए खतरा बने हुए लोग नशे में गाडिय़ां चलाते हैं, और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। हम छत्तीसगढ़ में ही देखते हैं कि जब किसी मालवाहक गाड़ी पर बोरियों की तरह लादकर ले जाए जा रहे इंसानों की थोक में मौतें होती हैं, तो उनके अंतिम संस्कार तक प्रदेश में कई जगह ऐसे मालवाहकों का चालान होता है, और अस्थियां उठ जाने के साथ ही कार्रवाई बंद हो जाती है। ऐसा लगता है कि हादसों से सबक लेना मिजाज में ही नहीं है।
यह तो हवाई जहाजों में पैसेवाले या ओहदेवाले ही अधिक सफर करते हैं, इसलिए उनकी हिफाजत के कई किस्म के इंतजाम रहते हैं। ट्रेन या बस से चलने वाले लोगों की जिंदगी कांग्रेस सांसद शशि थरूर के शब्दों में, कैटल-क्लास (पशु-दर्जा) रहती है, और इन दिनों लगातार कम होते जा रहे डिब्बों की वजह से लोग एक-दूसरे के सिर पर चढक़र किसी तरह सफर करते दिखते हैं। इस देश में सफर के लिए जितनी सहूलियतें हैं, वे सब हवाई मुसाफिरों के लिए हैं, बाकी को तो मानो साफ-सुथरे शौचालय का भी हक नहीं रहता है। अभी चार दिन पहले मुम्बई में लोकल ट्रेन के दरवाजों पर टंगकर सफर करने को मजबूर लोगों में से कुछ लोग किनारे के किसी खम्भे से टकराकर गिरकर मर भी गए। सोशल मीडिया पर मुम्बई की लोकल ट्रेन में चढऩे के संघर्ष के जो वीडियो दिखते हैं, वे भयानक हैं, और उन्हें देखकर यह समझ ही नहीं पड़ता कि ये लोग टैक्स पटाने वाले हैं, और टिकट खरीदकर सफर कर रहे हैं। हालत ऐसी लगती है कि वे किसी मुफ्त के भंडारे में खाना पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह हालत देश के सबसे बड़े महानगर की है जहां से केन्द्र और राज्य सरकार को सबसे अधिक टैक्स भी मिलता है। अभी यहीं की लोकल ट्रेन का कोई बड़ा हादसा हो जाए, तो सरकारें संभलकर बैठेंगी, और हादसे की खबरें जिंदा रहने तक सुधार का दिखावा करेंगी।
जिंदगी की हिफाजत किसी भी सरकार की सबसे बड़ी दिलचस्पी रहनी चाहिए, सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो है ही। लेकिन भारत में आबादी इतनी अधिक है कि सरकारों के माथे पर थोक मौतों से भी सिलवटें नहीं पड़ती हैं, जब थोक में आलोचना होने लगती है, तब जरूर कुछ दिनों के लिए परेशानी झलकती है, और जब देश का ध्यान रामदेवों या बागेश्वरों के किसी बयान की तरफ मुड़ जाता है, तो सरकारें मानो अपनी जिम्मेदारियों से बरी भी हो जाती हैं। जहां जनता की याददाश्त दो चुनावों के बीच के पांच साल भी जिंदा नहीं रह पाती, वहां पर जनता को ऐसी ही सरकारें हासिल होती हैं, जैसी सरकारों की जनता हकदार होती है। इस देश में जैसे-जैसे सार्वजनिक सुविधाओं, सेवाओं, और जगहों का निजीकरण होते जा रहा है, वैसे-वैसे जनता की हिफाजत प्राथमिकता की लिस्ट में नीचे गिरती जा रही है। अब विमानतलों, और स्टेशनों पर भी सबसे अधिक ध्यान निजी ठेकेदार कमाई के तरीकों पर देते हैं, फिर हिफाजत के नियम तो धंधे को मंदा करने वाले रहते हैं, उनकी तरफ भला कितना ध्यान दिया जाए?
कारोबार का यह रूख सिर्फ सफर के कारोबार में नहीं है, यह सिर्फ हिन्दुस्तान में भी नहीं है, यह पूरी दुनिया में प्रचलित तौर-तरीका है। अंतरराष्ट्रीय दवा उद्योग नई दवाओं के सुरक्षा पैमानों को हल्का करवाने में लगे रहता है, और सरकारों में रिश्वत देकर भी अगर नियमों को ढीला करवाया जा सकता है, तो उसमें भी यह धंधा बड़ा खुश रहता है। एक ढील से बड़ी कंपनियों का अरबों का न्यारा-वारा हो जाता है। ठीक ऐसे ही जब विमान कंपनियों को विमान बनाने में सुरक्षा की लापरवाही की छूट मिल जाती है, एयरलाईंस को विमान उड़ाते हुए नियम तोडऩे की छूट मिल जाती है, तो बेकसूर ग्राहक-मुसाफिर सैकड़ों की संख्या में मारे जाते हैं। अहमदाबाद की जिस घटना से आज हमने लिखना शुरू किया है, उसमें जिस एयर इंडिया का विमान गिरा, उसे अभी दो-तीन साल पहले ही सरकार से बहुत खस्ताहाल में टाटा ने खरीदा था। अब सुरक्षा पैमानों को लागू करवाने का जिम्मा सरकार की एजेंसियों का है। सरकार ने टाटा को कबाड़ दर्जे के विमान बेचे थे, और अब उनमें कमी-बेसी की अनदेखी करना सुरक्षा एजेंसियों की एक अघोषित जिम्मेदारी हो जाती है। आज देश में अचानक सरकार की नियामक संस्था से लेकर एयरलाईंस तक सब चौकन्ने हो गए हैं, देखना है कि यह श्मशान वैराग्य कितने दिन जारी रहता है, और क्या यह विमान मुसाफिरों से परे, ट्रेन मुसाफिरों, और सडक़ मुसाफिरों की हिफाजत तक भी बढ़ता है।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)