#सर्वमित्र_सुरजन
न्यायिक प्रक्रिया के दौरान नारी का सम्मान बनाये रखने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने नई शब्दावली दी है। अनेक ऐसे शब्द जो नारी की गरिमा को गिराने वाले होते हैं, उसकी बजाय शीर्ष अदालत ने सम्मानजनक शब्द दिये हैं। एक हैंडबुक के जरिये सर्वोच्च अदालत ने जो शब्द इस्तेमाल में लेने के लिये कहा है, आशा है कि अब कचहरी पहुंचने वाली महिलाओं को न्याय पाने के लिये अपनी प्रतिष्ठा के साथ समझौता नहीं करना होगा। शादी, तलाक, लिव इन रिलेशनशिप, यौन उत्पीड़न, प्रताड़ना, सम्पत्ति, विवाद होने पर बच्चों की कस्टडी आदि कई तरह के मुकदमों की सुनवाई के दौरान महिला पक्षकारों का बेहद अपमानजनक भाषावली से सामना होता है जिसके कारण उसके लिये न्याय को भूलकर अपनी प्रतिष्ठा को बचाना प्राथमिकता बन जाता है।
पुरुष प्रधान समाज द्वारा रचित महिलाओं की आबरू को तार-तार करने वाले कई शब्द, वाक्य और मुहावरे समाज में खूब प्रचलित हैं। महिलाओं को संबोधित करने वाले ऐसे रुढ़िवादी शब्दों को अदालत की शब्दावली से हटाकर सुप्रीम कोर्ट ने जो नये शब्द दिये हैं, उम्मीद की जानी चाहिये कि वे कचहरी की जिरह और दस्तावेज़ों में ही सीमित न रहकर पूरे समाज में इस्तेमाल होंगे ताकि औरतों को कोर्ट ही नहीं वरन पूरे समाज में अपमानित हुए बिना संबोधित होने का मौका मिले।
हमारे यहां महिलाओं के स्थान के बारे में चाहे जितनी महिमा गाई जाये, सच्चाई यही है कि भारतीय समाज औरतों को वह सम्मान नहीं देता जिसकी आधी आबादी हकदार है। बहुत से देशों का भी यह हाल हो सकता है। यह किसी एक धर्म या वर्ग से जुड़ी महिलाओं की भी बात नहीं है। थोड़े से अंश को छोड़ दिया जाये तो ज्यादातर महिलाएं देश में लैंगिक असमानता का शिकार हैं। फिर वे चाहें निम्न वर्ग की हों या मध्य वर्ग अथवा उच्च वर्ग की। शिक्षा ने कुछ फर्क ज़रूर डाला है पर असलियत यही है कि ज्यादातर महिलाएं अपने वाजिब अधिकारों की तरह ही सम्मान से काफी दूर हैं। पहले पिता या भाई के नियंत्रण में रहती स्त्रियां बाद में पति और अंतत: बुढ़ापे में पति के साथ रहते हुए या विधवा के रूप में पुत्रों पर आश्रित जीवन जीती हैं। उनकी भौतिक ज़रूरतों को लेकर होने वाली दुश्वारियां तो अपनी जगह पर हैं, घर हो या बाहर, वे आजीवन ज़िल्लत भरा जीवन जीती हैं। उन्हें जिन शब्दों से संबोधित किया जाता है वह अक्सर अपमानजनक होता है। घरों के बाहर भी महिलाओं को लेकर कोई बहुत अच्छी भाषा का उपयोग नहीं होता।
जो महिलाएं समाज में प्रचलित भाषा को चुपचाप सुन लेती हैं वे अच्छी मानी जाती हैं क्योंकि यह मानकर ही चला जाता है कि उनका जीवन इसी के लिये बना हुआ है या उनके प्रति ऐसे वाक्यों या शब्दों का प्रयोग गैरवाजिब नहीं है। फिर, यदि औरत न्याय की दहलीज तक पहुंचने वाली हो तो, पुरुष का अहम अधिक आहत होता है। ऐसी औरतों के लिये कटुतर व ज्यादा अपमानजनक शब्द प्रयोग में लाये जाते हैं। ये शब्द लोक व्यवहार से चलकर कानूनी प्रक्रिया में दाखिल हो गये हैं। रुढ़िवादी भाषा महिला को उसके हक की लड़ाई में कमजोर कर देती है।
औरतों को अपमानित करने वाला कानूनी दांव-पेंच शब्दों तक सीमित न रहकर महिला के विचारों और पोशाकों तक पहुंच जाता है। बलात्कार से पीड़ित महिला को इंसाफ पाने या दिलाने के लिये ‘दामिनी’ मूवी की तरह उस पीड़ादायी घटना का सिलसिलेवार वर्णन करना होता है जो बलात्कार से कहीं अधिक दर्दनाक होता है; या फिर ‘पिंक’ फिल्म की भांति महिला पक्षकार को नाइट पार्टी का आदी साबित कर चरित्रहीन बतलाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत को सभ्य समाज बनने के रास्ते पर एक और कदम चलाया है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा तैयार की गई एक हैंडबुक बुधवार को जारी की। इसका उद्देश्य महिलाओं के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले शब्दों पर रोक लगाना है। इस मौके पर उन्होंने कहा कि इससे जजों और वकीलों को लैंगिक रुढ़िवादी शब्दों के इस्तेमाल से बचने में सहायता मिल सकेगी। हैंडबुक में दिये गये शब्द अब से अदालतों में जिरह करने के दौरान और उनके फैसलों में उपयोग में लाये जायेंगे।
अनेक ऐसे शब्दों को वर्जित कर महिलाओं के लिये सम्मानजनक जो शब्द इस हैंडबुक में बतलाये गये हैं, उनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- अब तक प्रचलित प्रास्टिट्यूट, हूकर या रंडी के स्थान पर ‘सेक्स वर्कर’, अडल्ट्रेस या अफेयर (व्यभिचारिणी) की बजाय ‘शादी से इतर संबंध’ तथा हाउस वाइफ के बदले ‘होममेकर’ शब्द का इस्तेमाल होगा। ऐसे ही, कैरियर वूमन, इंडियन या वेस्टर्न वूमन, पवित्र महिला, स्लट या फूहड़ के स्थान पर केवल ‘महिला’ शब्द का प्रयोग होगा। बिन ब्याही मां को ‘मां’ तथा कीप या मिस्ट्रेस को ‘गैर मर्द से संबंध’ कहना होगा। बाल वेश्या को ‘ऐसी बच्ची जिसकी तस्करी की गई’, जन्म से लड़का-लड़की के स्थान पर ‘जन्म के समय निर्दिष्ट लड़का या लड़की’, स्त्रैण (जब अपमान के उद्देश्य से इस्तेमाल में लाया गया हो) के बदले लिंग तटस्थ शब्द जैसे ‘आत्मविश्वासी’ या ‘जिम्मेदार’ लफ़्ज़ों का प्रयोग होगा। भड़काऊ कपड़े केवल ‘कपड़े’ कहे जायेंगे और ये महिला की इच्छा के द्योतक नहीं होंगे। उनकी ना का अर्थ ना ही होगा।
आशा है कि महिलाओं को जो सम्मान शीर्ष अदालत दिलाना चाहता है वह सिर्फ मुकदमों की जिरह, सुनवाई और फैसलों में ही सीमित न रहे। कोर्ट परिसरों के बाहर भी समाज औरतों को वास्तविक सम्मान देगा ताकि हम लैंगिक समानता से युक्त समाज रच सकें। कोर्ट द्वारा दिखाया गया नारी सम्मान का रास्ता आम लोगों को कुछ तो सिखायेगा!
(देवेन्द्र सुरजन की वाल से साभार)
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बलात्कार, व्यभिचार,आदि मामलों में न्यायालय के वकील ,महिला से जिरह करते ऐसे शब्दों, घटनाओं के प्रश्न पूछते हैं जिनका उत्तर देने में महिलाओं झिझकती हैं .वकीलों के सेक्स से संबंधित अजीबोगरीब प्रश्नों को वादी महिला क्या, सामान्य नागरिक को भी सुनने में शर्म आती है
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