
-अख्तर खान अकेला-

बूंदी की एक अदालत ने झूंठी गवाही देने पर पति, पत्नी दोनों को पांच साल की सज़ा सुनाई है। सांसद, विधायक, पुलिस, पत्रकार, और जज भी देखते हैं कि पुलिस अनुसंधान की कोशिशों में जब सुबूत जुटाए जाते हैं और अनुसंधान अधिकारी कडी मेहनत करके फरियादी के सुप्रीमकोर्ट के निर्देशानुसार आवश्यकता होने पर मजिस्ट्रेट के सामने बयान कराता है। गवाह के भी बयान मजिस्ट्रेट के सामने होते है। इसके बाद चालान पेश होता है। लेकिन फरियादी और गवाह का आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट होने के बाद समझौते में बेईमानी पूर्वक धन प्राप्त करने के बाद , वही फरियादी,वही गवाह पुलिस अनुसंधान अधिकारी की सारी मेहनत मटियामेट कर देता है। अदालत में आकर पुलिस बयांन से मुकर जाता है। इतना ही नहीं मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए बयानों से भी मुकर जाता है। लेकिन देश की ट्रायल कोर्ट को आवश्यक बंदिश भरे निर्देश नहीं है कि ऐसा होने पर हर मुक़दमे में ऐसे पक्षद्रोही गवाहों के खिलाफ झूंठी गवाही का परिवाद अनिवार्य है। अधिकतर जज ऐसा नहीं कर पाते। अगर जजों के कर्तव्यों में ऐसे मामलों में कार्यवाही आवश्यक रूप से करने का दायित्व दे दिया जाए तो देश में आधे से ज़्यादा आपराधिक मामलों में बरी होने वाले लोग जेल की कोठरी में बंद हों। वरना अपराधी बलात्कार या हत्या करता है ,चाकू मारता है और फरियादी से समझौता करके अदालत में बयान बदलवा देता है। वह बरी हो जाता है। नतीजा अपराधी मोहल्ले में, शहर में दादा बन जाता है। वि कहता है मेरा अदालत ने क्या बिगाड़ लिया। मैं तो बरी होकर आ गया। इससे संदेश गलत जाता है। ऐसे में बयानों से मुकरने वालों के लिए यह खबर एक सबक़ है। क़ानून व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था के लिए एक सुझाव भी है कि अगर ऐसा क़ानून बनाकर ट्रायल जजों के लिए बंधन आदेश हो जाएं कि बयानों से मुकरने पर हर हाल में झूंठी गवाही देने का परिवाद पेश होगा , तो समाज की अराजकता के माहौल में भी रोक लगेगी और दोषी लोगों को सज़ा मिलने से अपराधों में भी कमी आएगी। समाज में भी सुधार होगा और अपराधियों में रूपये लेकर गवाही से मुकरने वालों में भी क़ानून का खौफ स्थापित होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा हो सकेगा।
(लेखक एडवोकेट हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)